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समीक्षात्मक अध्ययन/७५, गाथा में हुआ है। ये गाथाएं इसमें कैसे आई ? यह चिन्तनीय है। साधना का विघ्न : प्रमाद
बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद का विश्लेषण है। प्रमाद साधना में विघ्न हैं। प्रमाद को निवारण किये विना साधक जितेन्द्रिय नहीं बनता। प्रमाद का अर्थ है-ऐसी प्रवृत्तियाँ, जो साधना में बाधा उपस्थित करती हैं, साधक की प्रगति को अवरुद्ध करती हैं। उत्तराध्ययन नियुक्ति में प्रमाद के पाँच प्रकार बताये हैं२८० -मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा। स्थानांग में प्रमाद-स्थान छह बताये हैं।२८१ उसमें विकथा के स्थान पर छूत
और छठा प्रतिलेखनप्रमाद दिया है। प्रवचनसारोद्धार में२८२ आचार्य नेमीचन्द्र ने प्रमाद के अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्म में अनादर, वचन और काया का दुष्परिणाम, ये आठ प्रकार बताये हैं।
साधना की दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में विपुल सामग्री है। साधक को प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहने का संदेश दिया है। जैसे भगवान् ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक अप्रमत्त रहे, एक हजार वर्ष में केवल एक रात्रि को उन्हें निद्रा आई थी। श्रमण भगवान् महावीर बारह वर्ष, तेरह पक्ष साधना-काल में रहे। इतने दीर्घकाल में केवल एक अन्तर्मुहूर्त निद्रा आई। भगवान् ऋषभ और महावीर ने केवल निद्रा-प्रमाद का सेवन किया था।२८३ शेष समय वे पूर्ण अप्रमत्त रहे। वैसे ही श्रमणों को अधिक से अधिक अप्रमत्त रहना चाहिए।
अप्रमत्त रहने के लिए साधक विषयों से उपरत रहे, आहार पर संयम रखे। दृष्टिसंयम, मन, वचन और काया का संयम एवं चिन्तन की पवित्रता अपेक्षित है। बहुत व्यापक रूप से अप्रमत्त रहने के संबंध में चिन्तन हुआ है।
प्रस्तुत अध्ययन में आई हुई कुछ गाथाओं की तुलना धम्मपद, सुत्तनिपात, श्वेताश्वतर उपनिषद् और गीता आदि के साथ की जा सकती है:
___ "न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा।
एक्को वि पावाइं विवजयन्तो, विहरेज कामेसु असज्जमाणा॥" -[उत्तराध्ययन-३२/५] तुलना कीजिए
सचे लभेथ निपक सहायं, सद्धिं चरं साधुविहारिधीरं । अभिभूय्य सब्बानि परिस्सयानि, चरेय्य तेनत्तमनो सतीमा । नो चे लभेथ निपकं सहायं, सद्धिं चरं साधुविहारिधीरं। राजाव रठं विजितं पहायं, एको चरे मातंग व नागो। एकस्य चरितं सेय्यो, नत्थि बाले सहायता। एको चरे न पापानि कायिरा।
अप्पोस्सुक्को मातंगर व नागो॥ "अद्धा पसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा समा सेवितव्वा सहाया।
एते अलद्धा अनवजभोजी, एगो चरे खग्गविसाणकप्पो॥" [सुत्तनिपात्त, उर. ३/१३] "जहा य किंपागफसा मणोरमा, रसेण लण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्ड जीविय पच्चमाणा, एओपमा कामगुण विवागे॥" [उत्तराध्ययन-३२/२०]
२८१. स्थानांग ६, सूत्र ५०२
२८०. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५२० २८२. प्रवचनसारोद्धार, द्वार २०७ गाथा ११२२-११२३ २८३. (क) उत्तराध्यन नियुक्ति, गाथा ५२३-५२४
(ख) उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र-६२०