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दशम अध्ययन : द्रुमपत्रक
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के जीवों में दीर्घ आयुष्य वाला एक-एक जन्मग्रहण, और (१२) प्रमादबहुल जीव द्वारा शुभाशुभ कर्मों के कारण चिरकाल तक भवभ्रमण। मनुष्यजीवन की दुर्लभता के इन १२ कारणों को समझाकर प्राप्त मनुष्यजीवन में धर्माराधना करने में समयमात्र का भी प्रमाद न करने की प्रेरणा दी गई है।
भवस्थिति और कायस्थिति- जीव का अमुक काल तक एक जन्म में जीना भवस्थिति है और मृत्यु के पश्चात् उसी जीवनिकाय में पुनः -पुनः उत्पन्न होना कायस्थिति है। देव और नारक मृत्यु के पश्चात् अगले जन्म में पुनः देव और नारक नहीं होते। अतः उनकी भवस्थिति ही होती है, कायस्थिति नहीं। अथवा दोनों का काल बराबर है। तिर्यञ्च और मनुष्य मर कर अगले जन्म में पुनः तिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में जन्म ले सकते हैं। इसलिए उनकी कायस्थिति होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के जीव लगातार असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक तथा वनस्पतिकाय के जीव अनन्तकाल तक अपने-अपने उन्हीं स्थानों में मरते और जन्म लेते रहते हैं। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव हजारों वर्षों तक अपने-अपने जीवनिकायों में जन्म ले सकते हैं और पंचेन्द्रिय जीव लगातार ७-८ जन्म ग्रहण कर सकते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने इन गाथाओं में जीवों की कायस्थिति का निर्देश किया है। मनुष्यजन्मप्राप्ति के बाद भी कई कारणों से धर्माचरण की दुर्लभता बताकर प्रमादत्याग की प्रेरणा
१६. लखूण वि माणुसत्तणं आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं।
___ बहवे दसुया मिलेक्खुया समयं गोयम ! मा पमायए॥ __ [१६] (दुर्लभ) मनुष्यजन्म पाकर भी आर्यत्व का पाना और भी दुर्लभ है; (क्योंकि मनुष्य होकर भी) बहुत-से लोग दस्यु (चोर, लुटेरे आदि) और म्लेच्छ ( अनार्य-असंस्कारी) होते हैं। इसलिए, गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो।
१७. लभ्रूण वि आरियत्तणं अहीणपंचिन्दियया हु दुल्लहा।
विगलिन्दियया हु दीसई समयं गोयम! मा पमायए॥ [१७] आर्यत्व की प्राप्ति होने पर भी पांचों इन्द्रियों की परिपूर्णता (अविकलता) प्राप्त होना दुर्लभ है। क्योंकि अनेक व्यक्ति विकलेन्द्रिय (इन्द्रियहीन ) देखे जाते हैं। अतः गौतम! क्षण भर भी प्रमाद मत करो।
१८. अहीणपंचिन्दियत्तं पि से लहे उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा।
कुतित्थिनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए॥ [१८] अविकल (पूर्ण) पंचेन्द्रियों के प्राप्त होने पर भी उत्तम धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ है; क्योंकि बहुत से लोग कुतीर्थिकों के उपासक हो जाते हैं। अतः हे गौतम! क्षणमात्र का भी प्रमाद मत करो।
१९. लभ्रूण वि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा।
मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम! मा पमायए॥ १. उत्तराध्ययन मूलपाठ, अ० १०, गा०४ से १५ तक २. (क) स्थानांग. २/३/८५: "दुविहा ठिती. दोण्हं भवद्विती., दोण्हं कायतिट्ठी.।" (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३३६