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उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय
२९५ माता-पिता द्वारा श्रमणधर्म की कठोरता बताकर उससे विमुख करने का उपाय
२५. तं बिंत ऽम्मापियरो सामण्णं पुत्त! दुच्चरं।
गुणाणं तु सहस्साइं धारेयव्वाइं भिक्खुणो॥ [२५] माता-पिता ने उसे (मृगापुत्र से) कहा-पुत्र! श्रमणधर्म का आचरण अत्यन्त दुष्कर है। (क्योंकि) भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं।
२६. समया सव्वभूएसु सत्तु-मित्तेसु वा जगे।
पावाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करं ॥ [२६] भिक्षु को जगत् में शत्रुओं और मित्रों के प्रति, अथवा (यों कहो कि) समस्त जीवों के प्रति समत्व रखना तथा जीवन-पर्यन्त प्राणातिपात से निवृत्त होना अत्यन्त दुष्कर है।
२७. निच्चकालऽप्पमत्तेणं मुसावायविवजणं।
भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥ [२७] सदा अप्रमादी रहकर मृषावाद (असत्य) का त्याग करना (तथा) निरन्तर उपयोग युक्त रहकर हितकर सत्य बोलना, बहुत ही दुष्कर है।
२८. दन्त -सोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं।
अणवजेसणिज्जस्स गेण्हवा अवि दुक्करं ॥ ___ [२८] दन्तशोधन आदि भी विना दिए न लेना तथा प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य(निर्दोष) और एषणीय ही लेना अतिदुष्कर है।
२९. विरई अबम्भचेरस्स कामभोगरसन्नुणा।
उग्गं महव्वयं बम्भं धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ [२९] कामभोगों के स्वाद से अभिज्ञ व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य (मैथुन) से विरत होना तथा उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना अतीव दुष्कर कार्य है।
३०. धण-धन्न-पेसवग्गेसु परिग्गहविवजणं।
सव्वारम्भपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥ [३०] धन-धान्य एवं प्रेष्यवर्ग—दास-दासी आदि से सम्बन्धित परिग्रह का त्याग तथा सभी प्रकार के आरम्भों का परित्याग करना और ममतारहित होकर रहना अतिदुष्कर है।
३१. चउव्विहे वि आहारे राईभोयणवजणा।
___ सन्निहीसंचओ चेव वजेयव्वो सुदुक्करो॥ [३१] अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में सेवन करने का त्याग करना तथा (काल-मर्यादा से बाहर) घृतादि सन्निधि का संचय न करना भी सुदुष्कर है।
३२. छुहा तण्हा य सीउण्हं दंस-मसग-वेयणा।
अक्कोसा दुक्खसेज्जा य तणफासा जल्लमेव य॥