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चौवीसवाँ अध्ययन : प्रवचनमाता
किस एषणा में किन दोषों का शोधन आवश्यक?—गवेषणा (प्रथम एषणा) में आधाकर्म आदि १६ उद्गम के और धात्री आदि १६ उत्पादना के दोषों का शोधन करना है। ग्रहणैषणा में शंकित आदि १० एषणा के दोषों का तथा परिभोगैषणा में संयोजना, प्रमाण, अंगार-धूम और कारण, इन चार दोषों का शोधन करना है। अगर अंगार और धूम इन दो दोषों को अलग-अलग मानें तो परिभोगैषणा के ५ दोष होने से कुल १६ + १६ + १० + ५=४७ दोष होते हैं। यहाँ अंगार और धूम दोनों दोष मोहनीयकर्म के अन्तर्गत होने से दोनों को मिला कर एक दोष कहा गया है।
परिभोगैषणा में चतुष्कविशोधन-परिभोगैषणा में चार वस्तुओं का विशोधन करने का विधान दशवैकालिकसूत्र के अनुसार इस प्रकार है-'पिण्डं सेजं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य।' अर्थात् - पिण्ड, शय्या, वस्त्र और चौथा पात्र, इन चार का उद्गमादि दोषों के परिहार पूर्वक सेवन करे। आदान-निक्षेपसमिति : विधि
१३. ओहोवहोवग्गहियं भण्डगं दुविहं मुणी।
गिण्हन्तो निक्खिवन्तो य पउंजेज इमं विहि॥ ___ [१३] मुनि ओघ-उपधि और औपग्रहिक-उपधि, इन दोनों प्रकार के भाण्डक (अर्थात् उपकरणों) को लेने और रखने में इस (आगे कही गई) विधि का प्रयोग करे।
१४. चक्खुसा पडिलेहित्ता पमजेज जयं जई।
आइए निक्खिवेजा वा दुहओ वि समिए सया॥ [१४] समितिवान् (उपयोगयुक्त) एवं यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला मुनि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के उपकरणों को सदा आँखों से पहले प्रतिलेखन (देख-भाल) करके और फिर प्रमार्जन करके ग्रहण करे या रखे।
विवेचन-ओघौपधि और औपग्रहिकौपधि–उपधि अर्थात् उपकरण, रजोहरण आदि नित्यग्राह्य रूप सामान्य उपकरण को औधिक उपधि और कारणवश दण्ड आदि विशेष उपकरण को औपग्रहिक उपधि कहते हैं।
पडिलेहित्ता पमजेज-जिस उपकरण को उठाना या रखना हो, उसे पहले आँखों से भलीभांति देखभाल (प्रतिलेखनकर) ले, ताकि उस पर कोई जीव-जन्तु न हो, फिर रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर ले, ताकि कोई जीव-जन्तु हो तो वह धीरे से एक ओर कर दिया जाए, उसकी विराधना न हो। परिष्ठापनासमिति : प्रकार और विधि
१५. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण-जल्लियं।
आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं॥ १. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भाग २, पत्र १९२ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६१७ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९८१ ३. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९८२ (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र १९२ ४. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २, पत्र १९२ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९८३