________________
६२०
उत्तराध्ययनसूत्र
[१३५] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद होते हैं । विवेचन — कृमि आदि शब्दों के विशेषार्थ - कृमि — गन्दगी में पैदा होने वाले कीट या कीटाणु |
सौमंगल— सौमंगल नामक जीवविशेष। अलस— अलसिया या केंचुआ । मातृवाहक — चूड़ेल जाति के द्वीन्द्रिय जीव । वासीमुख- वसूले की आकृति वाले द्वीन्द्रिय जीव । शंखनक—छोटे-छोटे शंख (शंखोलिया) । पल्लोय—काष्ठ भक्षण करने वाले । अणुल्लक—छोटे पल्लुका । वराटक – कौड़ी, जलौक जौंक— जालक - जालक जाति के द्वीन्द्रिय जीव । चन्दनक— अक्ष ( चाँदनीये) । १
त्रीन्द्रिय त्रस
१३६. तेइन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे ॥
[१३६] त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेदों को मुझ से सुनो। १३७. कुन्थु - पिवीलि - उड्डंसा उक्कलुद्देहिया तहा । मालुगा पत्तहारागा ॥
तणहार-कट्ठहारा
[१३७] कुन्थु, चींटी, उद्देश (खटमल), उक्कल (मकड़ी), उपदेहिका ( दीमक—–उद्दई), तृणाहारक, काष्ठहारक (घुन), मालुक तथा पत्राहारक—
१३८. कप्पासऽट्ठिमिंजा य तिंदुगा तउसमिंजगा । सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्वा इन्दकाइया ॥
[१३८] कर्पासास्थिमिंजक, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी (सदावरी), गुल्मी (कानखजूरा) और इन्द्रकायिक, (ये सब त्रीन्द्रिय) समझने चाहिये ।
१३९. इन्दगोवगमाईया णेगहा एवमायओ । लोग ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ॥
[१३९] (तथा) इन्द्रगोपक (बीरबहूटी) इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गए हैं, वे सब लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं ।
१४०. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया विय।
ठि पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
[१४०] प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं । १४१. एगूणपणहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया ।
तेइन्दियआउठिई अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
[१४१] उनकी आयुस्थिति उत्कृष्टत: उनचास दिनों की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। १४२. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । तेइन्दियकायठिई तं कायं तु अमुंचओ ॥
१.
(क) उत्तरा० गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३५२ (ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ. ८६६-८६७