Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 740
________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति ६४१ [२६२] जो अनेक शास्त्रों के वेत्ता हैं, (आलोचना करने वालों को) समाधि (चित्त में स्वस्थता) उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही होते हैं; इन गुणों के कारण वे आलोचना सुनने के योग्य होते हैं। विवेचन–समाधिमरण में बाधकः अशुभभावनाएँ आदि समाधिमरण के लिए संलेखनापूर्वक, भक्तप्रत्याख्यान (संथारा) किये हुए मुनि के लिए कान्दी, आभियोगिकी, किल्विषिकी, मोही एवं आसुरी, ये पांच अप्रशस्त भावनाएँ बाधक हैं, क्योंकि ये पांचों भावनाएँ सम्यग्दर्शन आदि की नाशक हैं। इसलिए ये मरणकाल में रत्नत्रय की विराधक हैं और दुर्गति में ले जाने वाली हैं। अतएव इनका विशेषतः त्याग करना आवश्यक है। मरणकाल में इन भावनाओं का त्याग इसलिए आवश्यक कहा गया है कि व्यवहारतः चारित्र की सत्ता होने पर भी जीव को ये दुर्गति में ले जाती हैं। ___मृत्यु के समय साधक के लिए चार दोष समाधिमरण में बाधक हैं। जिनमें ये चार दोष (मिथ्यादर्शन, निदान, हिंसा और कृष्णलेश्या) हैं, उन्हें अगले जन्म में बोधि भी दुर्लभ होती है। इसके अतिरिक्त जो जिनवचन के प्रति अश्रद्धालु और उनसे अपरिचित होते हैं एवं तदनुसार आचरण नहीं करते, वे भी समाधिमरण से वंचित रहते हैं, बल्कि वे बेचारे बार-बार अकाममरण एवं बालमरण से मरते हैं। समाधिमरण में साधक- पूर्वोक्त गाथाओं से एक बात फलित होती है कि मरण के पहले किसी जीव में कदाचित् ये अशुभ भावनाएँ रही हों, किन्तु मृत्युकाल में वे नष्ट हो जाएँ और शुभ भावनाओं का सद्भाव हो जाए तो वे सद्भावनाएँ समाधिमरण एवं सुगतिप्राप्ति में साधक हो सकती हैं। मृत्यु के समय साधक के लिए समाधिमरण में छह बातें साधक हैं-(१) सम्यग्दर्शन में अनुराग, (२) अनिदानता, (३) शुक्ललेश्या में लीनता, (४) जिनवचन में अनुरक्तता, (५) जिनवचनों को भावपूर्वक जीवन में उतारना एवं (६) आलोचनादि द्वारा आत्मशुद्धि । इन बातों को अपनाने में समाधिपूर्वक मरण तो होता ही है, फलस्वरूप उसे आगामी जन्म में बोधि भी सुलभ होती है। वह. मिथ्यात्व आदि भाव-मल से तथा रागादि संक्लेशों से रहित होकर परीतसंसारी बन जाता है, अर्थात् -वह मोक्ष की ओर तीव्रता से गति करता है। समाधिमरण के लिए अन्तिम समय में गुरुजनों के समक्ष अपनी आलोचना (निन्दना, गर्हणा, प्रतिक्रमणा, क्षमापणा एवं प्रायश्चित) द्वारा आत्मशुद्धि करना आवश्यक है। अतः आलोचनादि समाधिमरण के लिए साधक हैं । आलोचना से व्रतनियमों की शुद्धि हो जाती है, जिनवचनों की निरतिचार आराधना हो जाती है। प्रस्तुत गाथा २६२ में आलोचनाश्रवण के योग्य गुरु आदि कौन हो सकते हैं? इसका भी निरूपण किया गया है—(१) जो अंग-उपांग आदि आगमों का विशिष्ट ज्ञाता हो, (२) देश, काल, आशय आदि के विशिष्ट ज्ञान से जो आलोचना करने वाले के चित्त में मधुरभाषणादि द्वारा समाधि उत्पन्न करने वाला हो और जो (३) गुणग्राही हो, वही गंभीराशय साधक आलोचनाश्रवण के योग्य है। मिथ्यादर्शनरक्त, सनिदान आदि शब्दों के विशेषार्थ-मिथ्यादर्शनरक्त-मोहनीयकर्म के उदय से जनित विपरीत ज्ञान तथा अतत्त्व में तत्त्व का अभिनिवेश या तत्त्व में अतत्त्व का अभिनिवेश मिथ्यादर्शन है, जो आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, अनाभोगिक और सांशयिक के भेद से पांच प्रकार का है। ऐसे मिथ्यादर्शन में जिनकी बुद्धि आसक्त है, वे मिथ्यादर्शनरक्त हैं । कामभोगासक्तिपूर्वक परभवसम्बन्धी भोगों की वांछा करना निदान है। जो निदान से युक्त हैं, वे सनिदान हैं। बोधि—जिनधर्म की प्राप्ति। १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका , भा.४, पृ. ९४३ से ९४५ २. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा.४, पृ. ९४५, ९५२-९५३

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