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उत्तराध्ययनसूत्र आलोचना -शुद्ध भाव से गुरु आदि योग्य जनों के समक्ष अपने दोष–अपराध या भूल प्रकट करना आलोचना है। कान्दी आदि प्रशस्त भावनाएँ
२६३. कन्दप्प-कोक्कुयाई तह सील-सहाव-हास-विगहाहिं।
विम्हावेन्तो य परं कन्दप्पं भावणं कुणइ॥ __ [२६३] जो कन्दर्प (कामकथा) करता है, कौत्कुच्य (हास्योत्पादक कुचेष्टाएँ) करता है तथा शील, स्वभाव, हास्य और विकथा से दूसरों को विस्मित करता (हंसाता) है, वह कान्दी भावना का आचरण करता है।
२६४. मन्ता-जोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजन्ति।
साय-रस-इड्ढिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ॥ [२६४] जो (वैषयिक) सुख के लिए रस (घृतादि रस) और समृद्धि के लिए मंत्र, योग (तंत्र) और भूति (भस्म आदि मंत्रित करके देने का) कर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना का आचरण करता है।
२६५. नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघ-साहूणं।
माई अवण्णवाई किब्बिसियं भावणं कुणइ॥ [२६५] जो ज्ञान की, केवलज्ञानी की, धर्माचार्य की, संघ की तथा साधुओं की निन्दा (अवर्णवाद) करता है, वह मायाचारी किल्विषिकी भावना का सेवन करता है।
२६६. अणुबद्धरोसपसरो तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवी।
एएहि कारणेहिं आसुरियं भावणं कुणइ॥ [२६६] जो सतत क्रोध की परम्परा फैलाता रहता है तथा जो निमित्त-(ज्योतिष आदि) विद्या का प्रयोग करता है, वह इन कारणों से आसुरी भावना का आचरण करता है।
२६७. सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य।
अणायार-भण्डसेवा जम्मण-मरणाणि बन्धन्ति॥ [२६७] जो खड्ग आदि शस्त्र के प्रयोग से , विषभक्षण से तथा पानी में डूब कर आत्महत्या करता है, जो साध्वाचार-विरुद्ध भाण्ड-उपकरण रखता है, वह (मोही भावना का आचरण करता हुआ) अनेक जन्ममरणों का बन्धन करता है।
विवेचन–पांच अप्रशस्त भावनाएँ— गाथा २५६ में कान्दी आदि पांच भावनाएँ मृत्यु के समय संयम की विराधना करने वाली बताई गयी हैं। प्रस्तुत पांच (गा० २६३ से २६७ तक) गाथाओं में उनमें से प्रत्येक का लक्षण बताया गया है। मूलाराधना एवं प्रवचनसारोद्धार में भी इन्हीं पांच भावनाओं तथा इनके प्रकारों का उल्लेख मिलता है।
१. उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका भा.४, पृ. ९४६, ९५२-९५३ २. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. २, पत्र ३६८-३६९ (ख) मूलाराधना ३/१७१ (ग) प्रवचनासारोद्धार , गा.६४१