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- उत्तराध्ययन सूत्र/६४८ -
न संतसंति मरणंते, सीलवन्ता बहुस्सुया॥५/२९॥ ज्ञानी और सदाचारी आत्माएँ मरणकाल में भी त्रस्त अर्थात् भयाक्रांत नहीं होते।
____ जावंतऽविजा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा।
लुप्पंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणंतए॥६/१॥ जितने भी अविद्यावान्–तत्त्वबोध-हीन पुरुष हैं वे दुःखों के पात्र होते हैं। इस अनन्त संसार में वे मूढ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते हैं।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा॥६/२॥ अपनी आत्मा के द्वारा, स्वयं की प्रज्ञा से सत्य का अनुसन्धान करो।
मेत्तिं भएसु कप्पए॥ ६/२॥ समस्त प्राणियों पर मित्रता का भाव रखना चाहिए।
न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए॥ ६/७॥ जो भय और वैर से उपरत—मुक्त हैं वे किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते।
भणंता अकरेन्ता य, बन्धमौक्खपइणियो।
वायावीरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं॥ ६/१०॥ जो केवल बोलते हैं करते कुछ नहीं, वे बन्ध और मोक्ष की बातें करने वाले दार्शनिक केवल वाणी के बल पर ही अपने आप को आश्वस्त किए रहते हैं।
न चित्त तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं॥६/११॥ विविध भाषाओं का पाण्डित्य मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकता। फिर विद्याओं का अनुशासन-अध्ययन किसी को कैसे बचा सकेगा?
पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे॥ ६/१४॥ पूर्वकृत कर्मों को नष्ट करने के लिए इस देह की सार-सम्भाल रखनी चाहिये।
आसुरीयं दिसं वाला, गच्छंसि अवसा तमं ॥ ७/१०॥ अज्ञानी जीव विवश हुए अन्धकाराच्छन्न आसुरी गति को प्राप्त होते हैं।
__बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होई सुदुल्लाहा तेसिं॥८/१५॥ जो आत्माएँ बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना अति दुर्लभ है।
कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स।
तेणावि से ण सन्तुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया॥८/१६॥ मानव की तृष्णा बड़ी दुष्पूर है। धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाय, तब भी वह उससे संतुष्ट नहीं हो सकता।
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकय कज्ज, कोडाए विन निट्टिय।।८/१७॥ ज्यों-ज्यों लाभ होता है. त्यों-त्यों लोभ बढ़ता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरन्तर बढ़ता ही जाता है। दो मात्रा सोने की अभिलाषा करने वाला करोड़ों से भी संतुष्ट नहीं हो पाता।