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उत्तराध्ययनसूत्र
भलीभांति समझ कर असंयमी (गृहस्थ) को नहीं जगाता हुआ मौनपूर्वक स्वाध्याय करे। फिर चतुर्थ प्रहर का चौथा भाग शेष रहने पर गुरुवन्दन करके वैरात्रिक काल (के कार्यक्रम) का प्रतिक्रमण करे और प्राभातिक काल का प्रतिलेखन करे (अर्थात् काल ग्रहण करे)।
यहाँ मध्यम क्रम की अपेक्षा से तीन काल ग्रहण किये हैं, अन्यथा उत्सर्गमार्ग में जघन्य तीन और उत्कृष्ट चार कालों के ग्रहण का विधान है, अपवादमार्ग में जघन्य एक और उत्कृष्ट दो कालों के ग्रहण का विधान है।
तदनन्तर पुनः (प्राभातिक) कायोत्सर्ग का काल प्राप्त होने पर सर्वदुःख-विमोचक कायोत्सर्ग करे। प्रस्तुत में तीन कायोत्सर्ग (रात्रिप्रतिक्रमण सम्बन्धी) विहित हैं। प्रथम कायोत्सर्ग में रत्नत्रय में लगे अतिचारों का चिन्तन, फिर उनकी आलोचना तथा तीसरे कायोत्सर्ग में तपश्चरण का विचार करे।
कायोत्सर्ग के 'सव्वदुक्खविमोक्खणं' विशेषण का अभिप्राय यह है कि कायोत्सर्ग महान् निर्जरा का (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप एवं वीर्य की और परम्परा से आत्मा की शुद्धि का) कारण है। इसलिए इसे पुनः पुनः करने का विधान है। शुद्ध चिन्तन के लिए एकाग्रता जरूरी है और कायोत्सर्ग में एकाग्रता आ जाती है, शरीर और शरीर से सम्बन्धित समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों का व्युत्सर्ग करने के बाद एकमात्र आत्मा ही साधक के समक्ष रहती है, इसलिए आत्मलक्षी चिन्तन इससे हो जाता है।
कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान आवश्यक आता है। इस दृष्टि से यहाँ तप को स्वीकार करने के चिन्तन का उल्लेख है। चिन्तन में अधिक से अधिक ६ मास से लेकर नीचे उतरते-उतरते अन्त में नौकारसी तप तक को स्वीकार करने का कायोत्सर्ग में चिन्तन करे और जो भी संकल्प हुआ हो, तदनुसार गुरुदेव से उस तप को ग्रहण करे। उपसंहार
५३. एसा सामायारी समासेण वियाहिया।
जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं॥ -ति बेमि। [५३] संक्षेप में, यह (साधु-) सामाचारी कही है, जिसका आचरण करके बहुत-से जीव संसारसमुद्र को पार कर गए हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ।
॥सामाचारी : छव्वीसवाँ अध्ययन समाप्त॥
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१. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २१७-२१८