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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
३०. अप्रतिबद्धता से लाभ
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३१ – अप्पडिबद्धयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणय ?
अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं जणयइ । निस्संगत्तेणं जीवे एगे, एगग्गचित्ते, दिया य राओ य असज्जमाणे, अप्पडिबद्धे यावि विहरइ ॥
[३१ प्र.] भगवन्! अप्रतिबद्धता से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
[उ.] अप्रतिबद्धता से जीव निस्संगता को प्राप्त होता है। निःसंगता से जीव एकाकी (आत्मनिष्ठ) होता है, एकाग्रचित्त होता है, दिन और रात वह सदैव सर्वत्र अनासक्त (विरक्त) और अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता है ।
विवेचन—प्रतिबद्धता — अप्रतिबद्धता — प्रतिबद्धता का अर्थ है - किसी द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव के पीछे आसक्तिपूर्वक बँध जाना । अप्रतिबद्धता का अर्थ इससे विपरीत है । अप्रतिबद्धता का क्रमशः प्राप्त होने वाला परिणाम इस प्रकार है - ( १ ) निःसंगता, (२) एकाकिता - आत्मनिष्ठा, (३) एकाग्रचित्तता, (४) सदैव सर्वत्र अनासक्तिविरक्ति एवं (५) अप्रतिबद्ध विचरण ।
३१. विविक्तशयनासन से लाभ
३२ – विवित्तसयणासणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणय ?
विवित्तसयणासणयाए णं चरित्तगुत्तिं जणयइ । चरित्तगुत्ते य णं जीवे विवित्ताहारे, दढचरित्ते, एगन्तरए, मोक्खभावपडिवन्ने अट्ठविहकम्मगंठिं निज्जरेइ ॥
[ ३२ प्र.] भन्ते ! विविक्त शयन और आसन से जीव को क्या लाभ होता है ?
[उ.] विविक्त (जनसम्पर्क से रहित अथवा स्त्री- पशु- नपुंसक से असंसक्त एकान्त स्थान में निवास से साधक चारित्र की रक्षा (गुप्ति) करता है । चारित्ररक्षा करने वाला जीव विविक्ताहारी (शुद्ध- सात्विक पवित्र - आहारी), दृढचारित्री, एकान्तप्रिय, मोक्षभाव से सम्पन्न एवं आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि की निर्जरा (एकदेश से क्षय) करता है ।
विवेचन- विविक्त निवास एवं शयनासन का महत्त्व - द्रव्य से जनसम्पर्क से दूर कोलाहल से एवं स्त्री-पशु-नपुंसक से रहित हो एकान्त, शान्त, साधना योग्य निवास स्थान हो, भाव मन में भी राग-द्वेषकषायादि से तथा वैषयिक पदार्थों की आसक्ति से शून्य एकमात्र आत्मकन्दरा में लीन हो । शास्त्रों में ऐसे एकान्त स्थान बताए हैं— श्मशान, शून्यगृह, वृक्षमूल आदि । १
३२. विनिवर्त्तना से लाभ
३३ - विणियट्टणयाए णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
विणियट्टणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुट्ठेई । पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं वीइवयइ ।
१. (क) उत्तरा . गुजराती भाषान्तर भा. २ (ख) 'सुसाणे सुन्नागारेय रुक्खमूले व एयओ।" -उत्तरा ३५/६