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उनतीसवाँ अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम
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क्षीण करता है। मोहनीयकर्म का क्षय करने वाला यदि पुरुष हो तो पुरुषवेद के दो खण्डों को, स्त्री या नपुंसक हो तो अपने-अपने वेद के दो-दो खण्डों को हास्यादि षट्क के अवशिष्टांश-सहित क्षीण करता है। फिर वेद के तृतीय खण्ड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है, इसी प्रकार पूर्वांशसहित संज्वलन मानमाया-लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् संज्वलन लोभ के संख्यात खण्ड किये जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक अन्तर्मुहूर्त में क्षीण किया जाता है। उसके अन्तिम खण्ड के फिर असंख्यात सूक्ष्म खण्ड होते हैं, उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। उसके भी अन्तिम खण्ड के असंख्यात सूक्ष्म खण्ड बनते हैं, उनमें से प्रत्येक खण्ड एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीयकर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है। मोहनीयकर्म के क्षीण होते ही छद्मस्थ वीतराग (यथाख्यात) चारित्र की प्राप्ति होती है, जो अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके जब अन्तिम दो खण्ड शेष रहते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचलता, देवगति, आनुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वप्रऋषभ के सिवाय शेष संहनन और समचतुरस्र के सिवाय शेष संस्थान, तीर्थंकर नामकर्म एवं आहारक नाम कर्म क्षीण हो जाते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है, वह प्रस्तुत सूत्र (७१) में उल्लिखित है। यथा—५ ज्ञानावरणीय, ९ दर्शनावरणीय और ५ अन्तराय, ये सब एक साथ ही क्षीण होते हैं। इस प्रकार घातिकर्मचतुष्टय के क्षीण होते ही केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाते हैं।
केवलजानी से मक्त होने तक केवली के जब तक भवोपनाही कर्म शेष रहते हैं. तब तक वह संसार में रहता है। उसकी स्थितिमर्यादा जघन्यतः अन्तर्महर्त और उत्कष्टतः देशोन करोड पूर्व र्व की है। जब तक केवली उक्त स्थितिमर्यादा में सयोगी अवस्था में रहता है, तब उसके अनुभागबन्ध एवं स्थितिबन्ध नहीं होता, क्योंकि कषायभाव में ही कर्म का स्थिति-अनुभागबन्ध होता है। कषायरहित होने से केवली के मनवचन-काया के योगों से ऐर्यापथिक कर्मबन्ध होता है, जिसकी स्थिति केवल दो समय की होती है। उसका बन्ध गाढ़ (निधत्त और निकाचित) नहीं होता। इसीलिए उसे बद्ध और स्पृष्ट कहा है। उसमें रागद्वेषजनित स्निग्धता न होने से दीवार पर लगे सूखे गोले की तरह पहले समय में कर्म बंधता है और दूसरे समय में झड़ जाता है। इसी को स्पष्ट करते हुए कहा है-पहले समय में बद्ध स्पृष्ट होता है, दूसरे समय में उदीरित अर्थात्-उदयप्राप्त और वेदित होता है, तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। अतः चौथे समय वह सर्वथा अकर्म बन जाता है अर्थात् उस कर्म की कर्म-अवस्था नहीं रहती। इससे आगे की अवस्था का वर्णन अगले सूत्र में किया गया है। केवली के योगनिरोध का क्रम ___७३. अहाउयं पालइत्ता अन्तो-मुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ सुक्कज्झाणं, झायमाणे, तप्पढमयाए मणजोगं निरुम्भइ, मणजोगं निरुम्भइत्ता वइजोगं निरुम्भइ, वइजोगं निरुम्भइत्ता, आणापाणुनिरोहं करेइ,आणापाणुनिरोहं करेइत्ता ईसि पंचरहस्सक्खरुच्चारधाए यणं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टिसुक्कझाणं झियायमाणे वेयणिजं, आउयं, नाम, गोत्तं, च एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं खवेइ॥ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५९४ से ५९६ तक २. (क) वही, पत्र ५९६ (ख) उत्तरझयणाणि टिप्पण (मु. नथमलजी), पृ. २४८-२४९