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तीसवाँ अध्ययन : तपोमार्गगति
आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है, जिसका निरूपण आगे किया जायेगा ।१
बाह्य और आभ्यन्तर तप का समन्वय— अनशनादि तपश्चरण से शरीर और इन्द्रियाँ उद्रिक्त नहीं हो सकतीं, अपितु कृश हो जाती हैं। दूसरे, इनके निमित्त से सम्पूर्ण अशुभकर्म अग्नि के द्वारा इन्धन की तरह भस्मसात् हो जाते हैं, तीसरे, बाह्य तप प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप की वृद्धि में कारण हैं। बाह्य तपों के द्वारा शरीर कृश हो जाने से इन्द्रियों का मर्दन (दमन) हो जाता है । इन्द्रियदमन हो जाने पर मन अपना पराक्रम कैसे प्रकट कर सकता है? कितना ही बलवान् योद्धा हो, प्रतियोद्धा द्वारा अपना घोड़ा मारा जाने पर अवश्य ही हतोत्साह व निर्बल जाता है। आभ्यन्तर परिणामशुद्धि का चिह्न अनशनादि बाह्यतप है। बाह्य साधन (तप) होते ही अन्तरंगतप की वृद्धि होती है। रागादि के त्याग के साथ ही चारों प्रकार के आहार के त्याग को अनशन माना है। वस्तुतः बाह्य तप आभ्यन्तर तप के लिए है । अतः आभ्यन्तर तप प्रधान है। वह आभ्यन्तर तप शुभ और शुद्ध परिणामों से युक्त होता है। इसके बिना अकेला बाह्य तप पूर्ण कर्मनिर्जरा करने में असमर्थ है।
बाह्यतप: प्रकार, अनशन के भेद-प्रभेद
८.
अणसणमूणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ॥
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[८] अनशन, ऊनोदरिका, भिक्षायर्चा, रसपरित्याग, कायक्लेश और (प्रति) संलीनता, यह (छह) बाह्य तप हैं।
९. इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अणसणा भवे । इत्तिरिया सावकंखा निरवकंखा बिइज्जिया ॥
१.
(क) बाह्यं—बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मुक्त्यवाप्ति — बहिरंगत्वाच्च । आभ्यन्तर तद्विपरीतं, यदि वा लोकप्रतीतत्वात् कुतीर्थिकैश्च स्वाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद् बाह्यम्, तदितरत्वादाभ्यन्तरम् । अन्ये त्वाहुः - प्रायेणानत: करण -व्यापाररूपमेवाभ्यन्तरम् । बाह्यं त्वन्यथेति । - बृहद्वृत्ति, पत्र ६००
(ख) बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् परप्रत्यक्षत्वाच्च बाह्यत्वम् । मनोनियमनार्थत्वादाभ्यन्तरत्वम् । –सर्वार्थसिद्धि ९ / १९-२० (ग) अनशनादि हि तीथ्यैः गृहस्थैश्च क्रियते, ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम् । - राजवा. ९/१९/१९ (घ) बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः । अनध्यक्षात्तपः प्रायश्चित्ताद्याभ्यन्तरं भवेत् ॥
- अनगारधर्मामृत ३३ श्लो.
(ङ) सो णाम बाहिरतवो, जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि । जेण य सड्ढा जायदि, जेण य जोगा ण हायंति ॥ -भगवती आराधना, गा. २३६
२. (क) देहाक्षतपनात्कर्म दहनादान्तरस्य च । तपसो वृद्धिहेतुत्वात् स्यात्तपोऽनशनादिकम् ॥ बाह्यैस्तपोभिः कर्शनादक्षमर्दने । छिन्नबाहो भट इव, विक्रामति कियन्मनः ? (ख) लिंगं च होदि आब्धंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी । - भगवती आराधना १३५० गा. (ग) ण च चउव्विह- आहारपरिच्चागो चेव अणसणं ।
रागादिहिं सह तच्चागस्स अणसणभावमब्भुवगमादो ॥ —धवला १६/५
(घ) यद्धि यदर्थं तत्प्रधानमिति प्रधानताऽभ्यन्तरतपसः ।
तच्च शुभशुद्धपरिणामात्मकं तेन विना न निर्जरायै बाह्यमलम् ॥ भगवती आराधना वि. १३४८/१
अनगारधर्मामृत ७/५-८