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इकतीसवाँ अध्ययन : चरणविधि
[१६] सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों में तथा रूपाधिक (सुन्दर रूप वाले) सुरों—अर्थात्-चौवीस प्रकार के देवों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन—सूत्रकृतांगसूत्र के २३ अध्ययन–प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययनों के नाम सोलहवें बोल में बताये गए हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ७ अध्ययन इस प्रकार हैं-(१) पौण्डरीक, (२) क्रियास्थान (३) आहारपरिज्ञा, (४) प्रत्याख्यानक्रिया, (५) आचार श्रुत, (६) आर्द्रकीय और (७) नालन्दीय। प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ७, ये सब मिलाकर २३ अध्ययन हुए। उक्त २३ अध्ययनों के भावानुसार संयमी जीवन में प्रवृत्त होना और असंयम से निवृत्त होना साधुवर्ग के लिए आवश्यक है।
चौवीस प्रकार के देव–१० प्रकार के भवनपति देव, ८ प्रकार के व्यन्तरदेव, ५ प्रकार के ज्योतिष्कदेव, और वैमानिक देव (समस्त वैमानिक देवों को सामान्य रूप से एक ही प्रकार में गिना है।) दूसरी व्याख्या के अनुसार चौवीस तीर्थंकर देवों का ग्रहण किया गया है।
___ मुमुक्षु को चौवीस जाति के देवों के भोग-जीवन की न तो प्रशंसा करना और न ही निन्दा, किन्तु तटस्थभाव रखना चाहिए। चौवीस तीर्थंकरों का ग्रहण करने पर इनके प्रति श्रद्धा भक्ति रखना, इनकी आज्ञानुसार चलना साधु के लिए आवश्यक है। पच्चीसवां और छव्वीसवां बोल
१७. पणवीस भावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं।
जे भिक्खू जयई निच्चं न अच्छइ मण्डले॥ [१७] पच्चीस भावनाओं तथा दशा आदि (दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार और बृहत्कल्प) के (छव्वीस) उद्देश्यों में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन—पांच महाव्रतों की २५ भावनाएँ—प्रथम महाव्रत की पांच भावना—(१) ईर्यासमिति, (२) आलोकित पानभोजन, (३) आदान-निक्षेपसमिति, (४) मनोगुप्ति और (५) वचनगुप्ति । द्वितीय महाव्रत की पांच भावना-(१) अनुविचिन्त्य भाषण, (२) क्रोध-विवेक (त्याग), (३) लोभविवेक, (४) भयविवेक और (५) हास्यविवेक। तृतीय महाव्रत की ५ भावना—(१) अवग्रहानुज्ञापना, (२) अवग्रहसीमापरिज्ञानता, (३) अवग्रहानुग्रहणता (अवग्रहस्थित तृण, पट्ट आदि के लिए पुनः अवग्रहस्वामी की आज्ञा लेकर ग्रहण करना), (४) गुरुजनों तथा अन्य साधर्मिकों से भोजनानुज्ञा प्राप्त करना और (५) साधर्मिकों से अवग्रहअनज्ञा प्राप्त करना.। चतर्थ महाव्रत की भावना-(१) स्त्रियों में कथावर्जन (अथवा स्त्रीविषयकचर्चात्याग), (२) स्त्रियों के अंगोपांगों का अवलोकनावर्जन, (३) अतिमात्र एवं प्रणीत पान-भोजनवर्जन, (४) पूर्वभुक्तभोग-स्मृति-वर्जन और (५) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन-वर्जन। पंचम महाव्रत की ५ भावना(१-५) पांचों इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव और अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न रखना। ५ महाव्रतों की इन २५ भावनाओं द्वारा रक्षा करना तथा संयमविरोधी भावनाओं १. (क) सूत्रकतांग १ से २३ अध्ययन तक (ख) समवायांग, समवाय २३ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६१६ : भवण-पण-जोइ-वेमाणिया य, दस अट्ट पंच एगविहा।
इति चउवीसं देवा, केई पुण बेंति अरिहंता॥ (ख) समवायांग. समवाय २४.