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चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन मुहूर्त से पूर्व एवं उत्तर भव से सम्बन्धित दो अन्तर्मुहूर्त विवक्षित हैं।'
नीललेश्या आदि की स्थिति—-इनके स्थितिनिरूपण में जो पल्योपम का असंख्येय भाग बताया है, उसमें पूर्वोत्तर भव से सम्बन्धित दो अन्तर्मुहूर्त प्रक्षिप्त हैं। फिर भी सामान्यतया असंख्येय भाग कहने में कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि असंख्येय के भी असंख्येय भेद होते हैं।
तिर्यञ्च-मनुष्य सम्बन्धी लेश्याओं की स्थिति-गाथा ४५-४६ में जघन्यतः और उत्कृष्टतः दोनों ही रूप से अन्तर्मुहूर्त बताई है, वह कथन भावलेश्या की दृष्टि से है, क्योंकि छद्मस्थ व्यक्ति के भाव अन्तर्मुहूर्त से अधिक एक स्थिति में नहीं रहते।
शुक्ललेश्या की स्थिति–गाथा ४५ में शुद्ध शुक्ललेश्या को छोड़ दिया गया है और गाथा ४६ में शुक्ललेश्या की स्थिति का प्रतिपादन किया है, यह केवली की अपेक्षा से है, क्योंकि सयोगी केवली की उत्कृष्ट केवलपर्याय ९ वर्ष कम पूर्वकोटि है और सयोगी केवली को एक-सरीखे व्यवस्थित भाव होने से उनकी शुक्ललेश्या की स्थिति भी ९ वर्ष कम पूर्वकोटि बताई गई है। अयोगी केवली में लेश्या होती ही नहीं है।
पाठ-व्यत्यय-गाथा ५२-५३ के मूलपाठ में व्यत्यय मालूम होता है। ५२ के बदले ५३ वीं और ५३ के बदले ५२ वीं गाथा होनी चाहिए। क्योंकि ५१ वीं गाथा में शास्त्रकार के भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक सभी देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का प्रतिपादन करने की प्रतिज्ञा की है, किन्तु ५२ वीं गाथा में सिर्फ वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति निरूपित की है, जबकि ५३ वीं गाथा में प्रतिपादित लेश्या की स्थिति का कथन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा से है। इसका संकेत टीकाकारों ने भी किया है। १०. गतिद्वार
५६. किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो दुग्गई उववजई बहुसो॥ [५३] कृष्ण, नील और कापोत; ये तीनों अधर्म (अप्रशस्त) लेश्याएँ हैं। इन तीनों से जीव अनेकों वार दुर्गति में उत्पन्न होता है।
५७. तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ।
एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववजई बहुसो॥ [५७] तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या; ये तीनों धर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से जीव अनेकों वार सुगति को प्राप्त होता है।
विवेचनदुर्गति-सुगतिकारिणी लेश्याएँ—प्रारम्भ की कृष्णादि तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप होने से अथवा पापोपादान का हेतु होने से अप्रशस्त, अविशुद्ध एवं अधर्मलेश्याएँ कही गई हैं, अतएव दुर्गतिगामिनी (नरक-तिर्यञ्च रूप दुर्गति में ले जाने वाली) हैं। पिछली तीन (तेजो, पद्म एवं शुक्ल) लेश्याएँ प्रशस्त, विशुद्ध एवं असंक्लिष्ट अध्यवसाय रूप होने से, अथवा पुण्य धर्म का हेतु होने से धर्मलेश्याएँ १. बृहद्वृत्ति. अ. रा. कोष, भा. ६ पृ. ६९१ २. वही, अ. रा. कोष, भा. ६ पृ. ६९१ ३. वही, अ. रा. कोष, भा.६ पृ. ६९२ ४. ......."वजयित्वा शुद्धां केवलां शुक्ललेश्यामिति यावत्"......वही, अ. रा. कोष, भा.६, पृ. ६९२ ५. "इयं च सामान्योपक्रमेऽपि वैमानिकनिकायविषयतया नेया।" -सर्वार्थसिद्धि टीका