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छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति
जीव-अजीव-विज्ञान का प्रयोजन-जब तक साधु जीव और अजीव तत्त्व के भेद को नहीं समझ लेता, तब तक वह संयम को नहीं समझ सकता। जीव और अजीव को जानने पर ही व्यक्ति अनेकविध गति, पुण्य, पाप, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को जान सकता है। अत: जीवाजीव विभाग को समझ लेने पर ही संयम की आराधना में साधु का प्रयत्न सफल हो सकता है। अजीवनिरूपण
४. रूविणो चेवऽरूवी य अजीवा दुविहा भवे।
अरूवी दसहा वुत्ता रूविणो वि चउव्विहा॥ [४] अजीव दो प्रकार है-रूपी और अरूपी। अरूपी दस प्रकार का है और रूपी चार प्रकार का।
विवेचन–अजीव का लक्षण—जिसमें चेतना न हो, जो जीव से विपरीत स्वरूप वाला हो, उसे अजीव कहते हैं।
रूपी, अरूपी—जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वे रूपी या मूर्त कहलाते हैं। जिसमें रूप आदि न हों वे अरूपी-अमूर्त हैं।३ अरूपी-अजीव-निरूपण
५. धम्मत्थिकाए तद्देसे तप्पएसे य आहिए।
अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए। _[५] (सर्वप्रथम) धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश तथा प्रदेश कहा गया है, फिर अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश कहा गया है।
६. आगासे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए।
___ अद्धासमए चेव अरूवी दसहा भवे॥ [६] आकाशास्तिकाय, उसका देश तथा प्रदेश कहा गया है। और एक अद्धासमए (काल), ये दस भेद अरूपी अजीव के हैं।
७. धम्माधम्मे य दोऽवेए लोगमित्ता वियाहिया।
__ लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए॥ [७] धर्म और अधर्म, ये दोनों लोक प्रमाण कहे गए हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल समय क्षेत्र (मनुष्य-क्षेत्र) में ही है।
८. धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया।
अपज्जवसिया चेव सव्वद्धं तु वियाहिया॥ १. (क) दशवैकालिक सूत्र अ. ४, भा. १२-१४ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनी भा. ४, पृ. ६८६ २. प्रज्ञापना पद १ टीका ३. तत्र रूपं स्पर्शाद्याश्रयभूतं मूर्तं तदस्ति येषु ते रूपिणः। तद्व्यतिरिक्ता अरूपिणः।
-बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष. भा. १, पृ. २