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उत्तराध्ययनसूत्र प्रवाह को लेकर अनादि-अनन्त और प्रतिनियत क्षेत्रावस्थान की दृष्टि से सादि-सान्त, स्थिति (पुद्गल द्रव्य की संस्थिति) जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्यात काल के बाद स्कन्ध आदि रूप से रहे हुए पुद्गल की संस्थिति में परिवर्तन हो जाता है। स्कन्ध बिखर जाता है, तथा परमाणु भी स्कन्ध में संलग्न होकर प्रदेश का रूप ले लेता है। अन्तर (पहले के अवगाहित क्षेत्र को छोड़ कर पुनः उसी विवक्षित क्षेत्र की अवस्थिति को प्राप्त होने में होने वाला व्यवधान (अन्तर) काल की अपेक्षा से—जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट अनन्त काल का पड़ता है।
परिणाम की अपेक्षा से—वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से स्कन्ध आदि का परिणमन ५ प्रकार का है। ___संस्थान : प्रकार और उनका स्वरूप—संस्थान आकृति को कहते हैं। इसके दो रूप हैं—इत्थंस्थ
और अनित्थंस्थ। जिसका परिमण्डल आदि कोई नियत संस्थान हो, वह इत्थंस्थ और जिसका कोई नियत संस्थान न हो, वह अनित्थंस्थ कहलाता है। इत्थंस्थ के ५ प्रकार- (१) परिमण्डल- चूड़ी की तरह लम्बगोल, (२) वृत्त—गेंद की तरह गोल, (३) त्र्यस्त्र—त्रिकोण, (४) चतुरस्र–चतुष्कोण और (५) आयत-बांस या रस्सी की तरह लम्बा।
पंचविध परिणाम की दृष्टि से समग्र भंग वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान इन्द्रियग्राह्य भाव हैं। भाव का अर्थ यहाँ पर्याय है। पुद्गल द्रव्य रूपी होने से उसके इन्द्रियग्राह्य स्थूल पर्याय होते हैं, जबकि अरूपी द्रव्य के इन्द्रियग्राह्य स्थूल पर्याय (भाव) नहीं होते। जैन दर्शन में वर्ण पांच, गन्ध दो, रस पांच, स्पर्श आठ और संस्थान पांच प्रसिद्ध हैं। इन्ही के विभिन्न पर्यायों के कुल ४८२ भंग होते हैं। वे इस प्रकार हैंकृष्णादि वर्ण गन्ध आदि से भाज्य होते हैं, तब कृष्णादि प्रत्येक पांच वर्ण के २० भेदों से गुणित होने पर वर्ण पर्याय के कुल १०० भंग हुए। इसी प्रकार सुगन्ध के २३ और दुर्गन्ध के २३, दोनों के मिल कर गन्ध पर्याय के ४६ भंग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक रस के बीस-बीस भेद मिला कर रसपंचक के संयोगी भंग १०० हुए। मृदु आदि प्रत्येक स्पर्श के १७-१७ भेद मिला कर संयोगी भंग होते हैं। इस प्रकार कुल १०० + ४६ + १०० + १३६ + १०० = ४८२ भंग हुए। ये सब भंग स्थूल दृष्टि से गिने गए हैं। वास्तव में सिद्धान्ततः देखा जाए तो तारतम्य की दृष्टि से प्रत्येक के अनन्त भंग होते हैं। जीवनिरूपण
४८. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया।
सिद्धाऽणेगविहा वुत्ता तं मे कित्तयओ सुण।। [४८] जीव के (मूलतः) दो भेद कहे गए हैं—संसारस्थ और सिद्ध। सिद्ध अनेक प्रकार के हैं। (पहले) उनका वर्णन करता हूँ, उसे तुम सुनो। १. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. ४७७ (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) पत्र ३३५-३३६ २. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर), पत्र ३३७ ३. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर), पत्र ३३८ (ख) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. ४७७