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२५. वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥
[२५] जो मनुष्य वक्र (वाणी से वक्र) है, आचार से वक्र है, कपटी (कुटिल ) है, सरलता से रहित है, प्रतिकुञ्चक (स्वदोषों को छिपाने वाला) है, औपधिक ( सर्वत्र छल-छद्म का प्रयोग करने वाला) है, मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है—
२६.
उप्फालग - दुट्ठवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काउलेसं तु परिणमे ॥
[२६] उत्प्रासक (जो मुंह में आया, वैसा दुर्वचन बोलने वाला) दुष्टवादी है, चोर है, मत्सरी ( डाह करने वाला) है, इन योगों से युक्त जीव कापोतलेश्या में परिणत होता है।
२७. नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले ।
विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ॥
[२७] जो नम्र वृत्ति का है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में विनीत (निपुण) है, दान्त है, योगवान् ( स्वाध्यायादि से समाधिसम्पन्न) है, उपधानवान् (शास्त्राध्ययन के समय विहित तपस्या का कर्त्ता ) है -
२८. पियधम्मे दढधम्मे वज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे ॥
[२८] जो प्रियधर्मी है, दृढ़धर्मी है, पापभीरु है, हितैषी है, परिणत होता है।
उत्तराध्ययनसूत्र
२९. पयणुक्कोह -माणे य माया - लोभे य पयणुए। पसन्तचित्ते दन्तप्पा जोगवं उवहाणवं ॥
, इन योगों से युक्त तेजोलेश्या में
३०. तहा पयणुवाई य उवसन्ते जिइन्दिए ।
एयजोगसमाउत्ते पम्हलेसं तु परिणमे ॥
[२९] जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ (कषाय) अत्यन्त पतले (अल्प ) हैं, जो प्रशान्तचित्त है, आत्मा का दमन करता है, योगवान् तथा उपधानवान् है—
[३०] जो अल्पभाषी है, उपशान्त है और जितेद्रिय है, इन योगों से युक्त जीव पद्मलेश्या में परिणत होता है ।
३१. अट्टरुद्दाणि वज्जिता धम्मसुक्काणि झायए । पसन्तचित्ते दन्तप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ॥
[३१] आर्त्त और रौद्र ध्यानों का त्याग करके जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्तचित्त और दान्त है, जो पांच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है—