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________________ ५७८ २५. वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए। पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए ॥ [२५] जो मनुष्य वक्र (वाणी से वक्र) है, आचार से वक्र है, कपटी (कुटिल ) है, सरलता से रहित है, प्रतिकुञ्चक (स्वदोषों को छिपाने वाला) है, औपधिक ( सर्वत्र छल-छद्म का प्रयोग करने वाला) है, मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है— २६. उप्फालग - दुट्ठवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काउलेसं तु परिणमे ॥ [२६] उत्प्रासक (जो मुंह में आया, वैसा दुर्वचन बोलने वाला) दुष्टवादी है, चोर है, मत्सरी ( डाह करने वाला) है, इन योगों से युक्त जीव कापोतलेश्या में परिणत होता है। २७. नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ॥ [२७] जो नम्र वृत्ति का है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में विनीत (निपुण) है, दान्त है, योगवान् ( स्वाध्यायादि से समाधिसम्पन्न) है, उपधानवान् (शास्त्राध्ययन के समय विहित तपस्या का कर्त्ता ) है - २८. पियधम्मे दढधम्मे वज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्तो तेउलेसं तु परिणमे ॥ [२८] जो प्रियधर्मी है, दृढ़धर्मी है, पापभीरु है, हितैषी है, परिणत होता है। उत्तराध्ययनसूत्र २९. पयणुक्कोह -माणे य माया - लोभे य पयणुए। पसन्तचित्ते दन्तप्पा जोगवं उवहाणवं ॥ , इन योगों से युक्त तेजोलेश्या में ३०. तहा पयणुवाई य उवसन्ते जिइन्दिए । एयजोगसमाउत्ते पम्हलेसं तु परिणमे ॥ [२९] जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ (कषाय) अत्यन्त पतले (अल्प ) हैं, जो प्रशान्तचित्त है, आत्मा का दमन करता है, योगवान् तथा उपधानवान् है— [३०] जो अल्पभाषी है, उपशान्त है और जितेद्रिय है, इन योगों से युक्त जीव पद्मलेश्या में परिणत होता है । ३१. अट्टरुद्दाणि वज्जिता धम्मसुक्काणि झायए । पसन्तचित्ते दन्तप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ॥ [३१] आर्त्त और रौद्र ध्यानों का त्याग करके जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्तचित्त और दान्त है, जो पांच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है—
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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