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चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन
३२. सरागे वीयरागे वा उवसन्ते जिइन्दिए।
___ एयजोगसमाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे॥ [३२] (ऐसा व्यक्ति) सराग हो, या वीतराग; किन्तु जो उपशान्त और जितेन्द्रिय है, जो इन योगों से युक्त है, वह शुक्ललेश्या में परिणत होता है।
विवेचन—छसुं अविरओ—पृथ्वीकायादि षट्कायिक जीवों के उपमर्दन (हिंसा)आदि से विरत न हो।
तिव्वारंभपरिणओ-शरीरतः या अध्यवसायतः अत्यन्त तीव्र आरम्भ-सावध व्यापार में जो परिणतरचा-पचा है।
णिद्धंधसपरिणामो—जिसके परिणाम इहलोक या परलोक में मिलने वाले दुःख या दण्डादि अपाय के प्रति अत्यन्त निःशंक (बेखटके) हैं अथवा जो प्राणियों को होने वाली पीड़ा की परवाह नहीं करता है।
सायगवेसए-अहर्निश सुख की चिन्ता में रहता है-मुझे कैसे सुख हो, इसी की खोज में लगा रहता है।
एयजोगसमाउत्तो—इन पूर्वोक्त लक्षणों के योगों-मन, वचन, काया के व्यापारों से युक्त, अर्थात्इन्हीं प्रवृत्तियों में मन, वचन, काया को लगाए रखने वाला।
कउलेसं तु परिणमे : आशय-कापोतलेश्या के परिणाम वाला है। अर्थात्-उसकी मनःपरिणति कापोतलेश्या की है। इसी प्रकार अन्यत्र समझ लेना चाहिए।
विणीयविणए-अपने गुरु आदि का उचित विनय करने में अभ्यस्त । ८. स्थानद्वार
३३. असंखिजाणोसप्पिणीण उस्सप्पिणीण जे समया।
संखईया लोगा लेसाणं हुन्ति ठाणाई॥ [३३] असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं अथवा असंख्यात लोर्को के जितने आकाशप्रदेश होते हैं; उतने ही लेश्याओं के स्थान (शुभाशुभ भावों की चढ़ती-उतरती अवस्थाएँ) होते हैं।
विवेचन—एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालचक्र वीस कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण होता है। ऐसे असंख्य कालचक्रों के समयों की सबसे छोटे कालांशों की जितनी संख्या हो, उतने ही लेश्याओं के स्थान हैं, अर्थात् विशुद्धि और अशुद्धि की तरतमता की अवस्थाएँ हैं। अथवा एक लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं। ऐसे असंख्यात लोकाकाशों की कल्पना की जाए तो उन सब के जितने प्रदेशों की संख्या होगी, उतने ही लेश्याओं के स्थान हैं । यह काल और क्षेत्र की अपेक्षा से लेश्या-स्थानों की संख्या हुई।२ ९. स्थितिद्वार
___३४. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना तेत्तीसं सागरा मुहत्तऽहिया।
उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा किण्हलेसाए॥ १. बृहवृत्ति उत्त. ३४, अ. रा. कोष भा. ६, पृ. ६८८-६९० २. बृहद्वृत्ति, अ. २, कोष भा.६, पृ.६९०