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चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन ६. परिणामद्वार
२०. तिविहो व नवविहो वा सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा।
दुसओ तेयालो वा लेसाणं होई परिणामो॥ [२०] लेश्याओं के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्कासी, अथवा दो सौ तैंतालीस प्रकार के परिणाम (जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट आदि) होते हैं।
विवेचन परिणाम : स्वरूप, संख्या-जैसे वैडूर्यमणि एक ही होता है किन्तु सम्पर्क में आने वाले विविध रंग के द्रव्यों के कारण वह रूप में उन्हीं के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार कृष्ण लेश्या आदि नीललेश्या आदि द्रव्यों के योग्य सम्पर्क को पाकर नीललेश्या आदि के रूप में परिणत हो जाती है। यही परिणाम है। इस प्रकार के परिणाम जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट आदि के रूप में ३, ९, २७,८१ या २४३ संख्या तक हो सकते हैं। ७. लक्षणद्वार
२१. पंचासवप्पवत्तो तीहिं अगुत्तो छसुं अविरओ य।
तिव्वारम्भपरिणओ खुद्दो साहसिओ नरो॥ [२१] जो मनुष्य पांच आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों से अगुप्त है, षट्कायिक जीवों के प्रति अविरत (असंयमी) है, तीव्र आरम्भ (हिंसा आदि) में परिणत (संलग्न) है, क्षुद्र एवं साहसी (अविवेकी) है—
२२. निद्धन्धसपरिणामो निस्संसो अजिइन्दिओ।
एयजोगसमाउत्तो किण्हलेसं तु परिणमे॥ - [२२] निःशंक परिणाम वाला है, नृशंस (क्रूर) है, अजितेन्द्रिय है, जो इन योगों से युक्त है, वह कृष्णलेश्या में परिणत होता है।
२३. इस्सा-अमरिस-अतवो अविज-माया अहीरिया य।
गेद्धी पओसे य सढे पमत्ते रसलोलुए सायगवेसए य॥ (२३) जो ईष्यालु है, अमर्ष (असहिष्णु-कदाग्रही) है, आतपस्वी है, अज्ञानी है, मायी है, निर्लज्ज है, विषयासक्त है, प्रद्वेषी है, शठ (धूर्त) है, प्रमादी है, रसलोलुप है, सुख का गवेषक है
२४. आरम्भाओ अविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो।
एयजोगसमाउत्तो नीललेसं तु परिणमे॥ [२४] जो आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, दुःसाहसी है, इन योगों से युक्त मनुष्य नीललेश्या में परिणत होता है। १. (क) "से नृणं भंते ! कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति?
हंता गोयमा!......" इत्यादि। .........नवरं यथा वैडूर्यमणिरेक एव तत्तदुपाधिद्रव्य सम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमते, तथैव तान्येष कृष्णलेश्यायोग्यानि द्रव्याणि तत्तन्नीलादिलेश्यायोग्यद्रव्य सम्पर्कतस्तद्रूपतया परिणमन्ते इति ।
-प्रज्ञापना पद १७ सू. २२५ वृत्ति