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उत्तराध्ययनसूत्र तपस्वी कहना, (२५) शक्ति होते हुए भी रोगी, वृद्ध अशक्त आदि की सेवा न करना, (२६) ज्ञान-दर्शनचारित्रविनाशक कामोत्पादक कथाओं का बार-बार प्रयोग करना, (२७) अपने मित्रादि के लिए बार-बार जादू टोने, मन्त्र वशीकरणादि का प्रयोग करना। (२८) ऐहिक पारलौकिक भोगों की निन्दा करके छिपेछिपे उनका सेवन करना, उनमें अत्यासक्त रहना, (२९) देवों की ऋद्धि, द्युति, बल, वीर्य आदि की मजाक उड़ाना और (३०) देवदर्शन न होने पर भी मुझे देव-दर्शन होता है, ऐसा झूठमूठ कहना।
महामोहनीय कर्मबन्ध दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क्रूरता के कारण होता है, इसलिए इसके कारणों की कोई सीमा नहीं बांधी जा सकती। तथापि शास्त्रकारों ने तीस मुख्य कारण महामोहनीयकर्मबन्ध के बताए हैं। साधु को इनसे सदैव अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। इकतीसवाँ, बत्तीसवाँ और तेतीसवाँ बोल
२०. सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य।
__ जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ [२०] सिद्धों के ३१ अतिशायी गुणों में, (बत्तीस) योगसंग्रहों में और ३३ आशातनाओं में जो भिक्षु सदा उपयोग रखता है, वह संसार में नहीं रहता।
विवेचन—सिद्धों के इकतीस गुण-आठ कर्मों में से ज्ञानावरणीय के ५, दर्शनावरणीय के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के दो (दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय), आयु के ४, नामकर्म के दो (शुभनामअशुभनाम), गोत्रकर्म के दो (उच्चगोत्र, नीचगोत्र), और अन्तरायकर्म के ५ (दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय) इस प्रकार आठों कर्मों के कुल भेद ५+९+२+२+४+२+२+५=३१ होते हैं। इन्हीं ३१ कर्मों का सर्वथा क्षय करके सिद्ध भगवान् ३१ गुणों से युक्त बनते हैं। सिद्धों के गुणों का एक प्रकार और भी है जो आचारांग में बताया गया है–५ संस्थान, ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्श, ३ वेद, शरीर, आसक्ति और पुनर्जन्म, इन ३१ दोषों के क्षय से भी ३१ गुण होते हैं। ___'सिद्धाइगुण' का अर्थ होता है—सिद्धों के अतिगुण (उत्कृष्ट या असाधारण गुण) । साधु को सिद्धगुणों को प्राप्त करने की भावना करनी चाहिए।
बत्तीस योगसंग्रह—(१) आलोचना (गुरुजनसमक्ष स्व-दोष निवेदन), (२) अप्रकटीकरण (किसी के दोषों की आलोचना सुन कर औरों के सामने न कहना), (३) संकट में धर्मदृढता, (४) अनिश्रित या आसक्तिरहित तपोपधान (५) ग्रहणशिक्षा और आसेवनाशिक्षा का अभ्यास, (६) निष्प्रतिकर्मता (शरीरादि १. (क) दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ९
(ख) समवायांग, समवाय ३० २. (क) सयवायांग, समवाय ३१ (ख) से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले।
ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए,ण हालिद्दे,ण सुक्किले। ण सुब्भिगंधे, ण दुब्भिगंधे। ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्धे, ण लुक्खे,ण काऊ,ण उण्हे। ण संगे। ण इत्थी,ण पुरिसे,ण अन्नहा॥
-आचारांग १/५/६/१२६-१३४-बृहद्वत्ति, पत्र ६१७