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उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन–ज्ञानावरणीयादि कर्मों के कारण—ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के पांच-पांच कारण हैं-(१) ज्ञान और ज्ञानी के तथा दर्शन और दर्शनवान् के दोष निकालना (२) ज्ञान का निह्नव करना, (३) मात्सर्य, (४) आशातना और (५) उपघात करना।
साता और असाता वेदनीय के हेतु-भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, शान्ति और शौच, ये सातावेदनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं। स्व-पर को दुःख, शोक, संताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन, ये असातावेदनीय कर्मबन्ध के हेतु हैं।२ ।
दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय बन्ध के हेतु-केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म एवं देव का अवर्णवाद (निन्दा) दर्शनमोहनीय कर्मबन्ध का हेतु है, जब कि कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय कर्म के बन्ध का हेतु है। दर्शनविषयक मोहनीय दर्शनमोहनीय कहलाता है।
सम्यक्त्वमोहनीयादि तीनों का स्वरूप-मोहनीय कर्म के पुद्गलों का जितना अंश शुद्ध है, वह शुद्धदलिक कहलाता है, वही सम्यक्त्व (सम्यक्त्वमोहनीय) है। जिसके उदय में भी तत्त्वार्थ श्रद्धानतत्त्वभिरुचि का विघात नहीं होता। मिथ्यात्व अशुद्धदलिकरूप है, जिसके उदय से अतत्त्वों में तत्त्वबुद्धि होती है। सम्यग्मिथ्यात्व शुद्धाशुद्धदलिकरूप है, जिसके उदय से जीव का दोनों प्रकार का मिश्रित श्रद्धान होता है। यद्यपि सम्यक्त्वादि जीव के धर्म हैं, तथापि उसके कारणरूप दलिकों का भी सम्यक्त्वादि के नाम से व्यपदेश होता है।
चारित्रमोहनीय : स्वरूप और प्रकार—जिसके उदय से जीव चारित्र के विषय में मोहित हो जाए, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। इसका उदय होने पर जीव चारित्र का फल जान कर भी चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकता। चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है-कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । क्रोधादि कषायों के रूप से जो वेदन (अनुभव) किया जाता है, वह कषायमोहनीय है और कषायों के सहचारी हास्यादि के रूप में जो वेदन किया जाता है, वह नोकषायमोहनीय है। कषाय मूलतः चार प्रकार के हैं—क्रोध, मान, माया और लोभ। फिर इन चारों के प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन रूप से चार-चार भेद हैं। यों कषायमोहनीय के १६ भेद हैं। नोकषायमोहनीय के नौ भेद हैंहास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । तीनों वेदों को सामान्य रूप से एक ही गिना जाए तो इसके सात ही भेद होते हैं।'
___ आयुष्यकर्म के प्रकार और कारण-आयुष्यकर्म चार प्रकार का है—नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध और मांसाहार, ये चार नरकायु के बन्धहेतु हैं, माया एवं गूढमाया तिर्यञ्चायु के बन्धहेतु हैं, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, स्वभाव में मृदुता और ऋजुता, ये मनुष्यायु के १. तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः -तत्त्वार्थ. ६/११ २. (क) दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य।
(ख) भूतव्रत्यनुकम्पादानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सदवेद्यस्य। -तत्त्वार्थ ६/१२-१३
(ग) उत्तरा प्रियदर्शिनी टीका, भा. ४, पृ. ५८३ ३. (क) केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।
(ख) कषायोदयात्तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य। ४. उत्तरा. प्रियदर्शिटीका, भा.४, पृ.५८४-५८५ ५. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ४, पृ. ५८६-५८७