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उत्तराध्ययनसूत्र से अपने में 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ,' इस प्रकार कल्पना करता है ॥ ४॥ जिस कर्म के उदय से जीव एक गति से दूसरी गति में स्वेच्छा से न जा सके; अर्थात्-जिस प्रकार पैरों में पड़ी हुई बेड़ी का बन्धन जीव को वहीं एक स्थान पर रोके रखता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव चाहने पर भी दूसरी गति में न जा सके, जो विवक्षित गति में ही जीव को रोके रखे, उसका नाम आयु कर्म है ॥५॥ जिस प्रकार चित्रकार अनेक प्रकार के छोटे-बड़े चित्र बनाता है, उसी प्रकार जो जीव के शरीर आदि की नाना प्रकार से रचना कर अर्थात्-शरीर को सुन्दर-असुन्दर, छोटा-बड़ा आदि बनाए, उसका नाम नामकर्म है ॥६॥ जिस प्रकार कुंभार मिट्टी को उच्च-नीच रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार जो कर्म जीव को उच्च-नीच संस्कार युक्त कुल में उत्पन्न करता है, उसका नाम गोत्र कर्म है ॥७॥ जैसे राजा द्वारा भण्डारी को किसी को दान देने का आदेश दिया जाने पर भी भण्डारी उक्त व्यक्ति को दान देने में अन्तराय (विघ्न) रूप बन जाता है, उसी प्रकार जो कर्म जीव के लिए दानादि करने में विघ्नकारक बन जाता है, वह अन्तरायकर्म है ॥ ८॥ इस प्रकार संक्षेप में ये ८ कर्म हैं, विस्तार की अपेक्षा कर्म अनन्त हैं ।
कर्मों का क्रम : अर्थापेक्ष—समस्त जीवों को जो भव-व्यथा हो रही है, वह ज्ञान-दर्शनावरणकर्म के उदय से जनित है। इस व्यथा को अनुभव करता हुआ भी जीव मोह से अभिभूत होने के कारण वैराग्य प्राप्त नहीं कर पाता। जब तक यह अविरत अवस्था में रहता है, तब तक देव, मनुष्य, तिर्यञ्च एवं नरक आयु में वर्तमान रहता है। बिना नाम के जन्म होता नहीं, तथा जितने भी जन्म धारण करने वाले प्राणी हैं, वे सब गोत्र से बद्ध हैं। संसारी जीवों को जो सुख के लेश का अनुभव होता है, वह सब अन्तराय सहित है। इसलिए ये आठों कर्म परस्पर सापेक्ष हैं।२।। आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ
४. नाणावरणं पंचविहं सुयं आभिणिबोहियं।
ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं॥ [४] ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है—श्रुत (-ज्ञानावरण), आभिनिबोधिक (-ज्ञानावरण), अवधि (-ज्ञानावरण), मनो (मनःपर्याय) ज्ञान (-आवरण) और केवल (-ज्ञानावरण)।
५. निद्दा तहेवा पयला निदानिद्दा य पयलपयला य।
तत्तो य थीणगिद्धी उ पंचमा होइ नायव्वा॥ ६. चक्खुचक्खु-ओहिस्स दंसणे केवले य आवरणे।
___ एवं तु नवविगप्पं नायव्वं दंसणावरणं॥ [५-६] निद्रा, प्रचला, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और पांचवी स्त्यानगृद्धि
चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण, इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के ये नौ विकल्प (-भेद) समझने चाहिए।
७. वेयणीयं पि य दुविहं सायमसायं च आहियं।
सायस्स उ बहू भेया एमेव असायस्स वि॥ १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ५७८ २. वही, भा. ४, पृ. ५७७