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उत्तराध्ययनसूत्र
___विवेचन कषायविजय : स्वरूप और परिणाम–कषाय चार हैं—क्रोध, मान, माया और लोभ। क्रोधमोहनीयकर्म के उदय से होने वाला जीव का प्रज्वलनात्मक परिणामविशेष क्रोध है। क्रोध से जीव कृत्य-अकृत्य के विवेक से विहीन बन जाता है। क्योंकि क्रोध उस विवेक को नष्ट कर देता है। इसका परिपाक बहुत दुःखद होता है'; इस प्रकार के निरन्तर विचार से जीव क्रोध पर विजय पा लेता है। क्रोध पर विजय पा लेने से जीव के चित्त में क्षमाभाव आ जाता है। इस क्षमाभाव की पहचान यह है कि जीव इसके सद्भाव में दूसरे के कठोर-कटु वचनों को बिना किसी उत्तेजना के सह लेता है। इस कारण क्रोध के उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष (क्रोधवेदनीय) का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है।
मान (अहंकार) एक कषायविशेष है। मान का निग्रह करने से जीव का परिणाम कोमल हो जाता है। फलतः इसके उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
इसी तरह माया (कपट) पर विजय से सरलता को और लोभविजय से सन्तोष को प्राप्त होता है। और माया तथा लोभ के उदय से बंधने वाले मोहनीयकर्मविशेष का बंध नहीं करता और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
राग-द्वेष-मिथ्यादर्शन-विजय का क्रमशः परिणाम-जब तक राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन रहता है, तब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना होती रहती है। इन पर विजय प्राप्त करने अर्थात् इनका निग्रह या निरोध करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए व्यक्ति उद्यत हो जाता है। ज्ञानादि रत्नत्रय की निरतिचार विशुद्ध आराधना से आठ कर्मों की जो कर्मग्रन्थि है, अर्थात् घातिकर्मचतुष्टय का समूह है, साधक उसका भेदन कर डालता है, जिससे केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो जाता है। उसके पश्चात् शेष रहे चार अघाती कर्मों को भी सर्वथा क्षीण कर देता है और अन्त में कर्मरहित हो जाता है।
कर्मग्रन्थि तोड़ने का क्रम प्रस्तुत सूत्र ७१ में जो कर्मग्रन्थि अर्थात् घातिकर्मचतुष्टय के क्षय का क्रम बताया है, उसका विवरण इस प्रकार है-वह सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की २८ प्रकृतियों (१६ कषाय, ९ नोकषाय एवं सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीय) का क्षय करता है। बृहद्वृत्ति के अनुसार उसका क्रम यों है-सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय के बहुभाग को अन्तर्मुहूर्त में क्षीण करता है, उसके अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुभाग को क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्-मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यग्मिथ्यात्व को क्षीण करता है। तदनन्तर उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के अंशसहित सम्यक्त्वमोह के पुद्गलों को क्षीण करता है। तदनन्तर सम्यक्त्वमोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान
और प्रत्याख्यान कषायचतुष्टय को क्षीण करना प्रारम्भ कर देता है। उसके क्षयकाल में वह दो गति (नरकतिर्यञ्च), दो आनुपूर्वी (नरकानुपूर्वी-तिर्यञ्चानुपूर्वी), जातिचतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति), आतप, उद्योत, स्थावरनाम, साधारण, अपर्याप्त, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि को क्षीण करता है। तत्पश्चात् इसके अवशिष्ट अंश को नपुंसकवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है, उसके अवशिष्टांश को स्त्रीवेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण करता है। उसके अवशिष्टांश को हास्यादि षट्क में प्रक्षिप्त कर उसे १. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ४, पृ. ३५१ से ३५३ तक २. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २६०