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उत्तराध्ययनसूत्र
[३३ प्र.] विनिवर्तना से जीव को क्या लाभ होता है ?
[उ.] विनिवर्तना से जीव (नये) पाप कर्मों को न करने के लिये उद्यत रहता है; पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा से वह पापकर्मों का निवर्तन (क्षय) करता है। तत्पश्चात् चार गतिरूप संसाररूपी महारण्य (कान्तार) को पार कर जाता है।
विवेचन-विनिवर्तना : विशेषार्थ आत्मा (मन और इन्द्रियों) का विषयों से पराङ्मुख होना। जब मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से-अर्थात्-आश्रवों से-बन्ध हेतुओं से साधक विनिवृत हो जाता है तो स्वतः ही ज्ञानावरणीयादि पापकर्मों को नहीं बाँधने के लिए उद्यत हो जाता है तथा दूसरे शब्दों में वह धर्म के प्रति उत्साहित हो जाता है। तथा पापकर्म के हेतु नहीं रहते, तब पूर्वबद्ध कर्म स्वयं क्षीण होने लगते हैं। अत: नये पापकर्म को वह विनष्ट या निवारण कर देता है। बन्ध और आश्रव दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं। आश्रव के रुकते ही बन्ध टूट जाते हैं। इसलिए पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा दोनों के सहवर्ती होने से संसार-महारण्य को पार करने में क्या सन्देह रह जाता है ? यही विनिवर्तना का सुदूरगामी परिणाम है। ३३ से ४१. प्रत्याख्यान की नवसूत्री
३४-संभोग-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
संभोग-पच्चक्खाणेणं आलम्बणाईखवेइ। निरालम्बणस्स य आययट्ठिया जोगा भवन्ति।सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएइ, नो तक्केइ, नो पत्थेइ, नो पीहेइ, नो अभिलसइ। परलाभं अणासायमाणे, अतळमाणे, अपीहेमाणे, अपत्थेमाणे, अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेजं उवसंपजित्ताणं विहरइ।
[३४ प्र.] भन्ते ! सम्भोग-प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ?
[उ.] सम्भोग के प्रत्याख्यान से आलम्बनों का क्षय (आलम्बन-मुक्त) हो जाता है। निरवलम्ब साधक के मन-वचन-काय के योग (सब प्रयत्न) आयतार्थ (मोक्षार्थे) हो जाते हैं। तब वह स्वयं के द्वारा उपार्जित लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरों के लाभ का आस्वादन (उपभोग) नहीं करता। (वह परलाभ की) कल्पना भी नहीं करता, न उसकी स्पृहा करता है, न प्रार्थना (याचना) करता है और न अभिलाषा ही करता है। दूसरों के लाभ का आस्वादन, कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ साधक द्वितिय सुखशय्या को प्राप्त करके विचरता है।
३५-उवहि-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
उवहि-पच्चक्खाणेणं अपलिमन्थं जणयइ। निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे, उवहिमन्तरेण य न संकिलिस्सइ।
[३५ प्र.] भंते ! उपधि के प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है ?
[उ.] उपधि (उपकरण) के प्रत्याख्यान से जीव परिमन्थ (स्वाध्याय-ध्यान की हानि) से बच जाता है। उपधिरहित साधक आकांक्षा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में क्लेश नहीं पाता। १. उत्तरा. बृहवृत्ति, पत्र ५८७