________________
उत्तराध्ययनसूत्र
तथा तू-तू-मैं-मैं आदि से सहज ही मुक्त हो जाता है। संयम और संवर में आगे बढ़ा हुआ वह समाधिसम्पन्न हो जाता है।
४७६
४१. भत्त-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
भत्त-पच्चक्खाणं अणेगाइं भवसयाइं निरूम्भइ ।
[४१ प्र.] भन्ते ! भक्त - प्रत्याख्यान (आहारत्याग) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? [उ.] भक्त-प्रत्याख्यान से जीव अनेक सैकड़ों भवों (जन्म-मरणों) का निरोध कर लेता है। ४२. सब्भाव-पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
सब्भाव-पच्चक्खाणेणं अनियट्टिं जणय | अनियट्टिपडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तं जहा—वेयणिज्जं, आउयं, नामं, गोयं । तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाएइ, सव्वदुक्खाणमन्तं करे ।
[४२ प्र.] भन्ते ! सद्भाव - प्रत्याख्यान से जीव को क्या उपलब्धि होती है ?
[उ.] सद्भाव-प्रत्याख्यान से जीव को अनिवृति ( शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद) की प्राप्ति होती है । अनिवृत्ति से सम्पन्न अनगार केवलज्ञानी के शेष रहे हुए — वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र – इन भवोपग्राही कर्मों का क्षय कर डालता है । तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है तथा सब दुःखों का अन्त करता है ।
विवेचन - सम्भोग : लक्षण - समान सामाचारी वाले साधुओं का एक गण्डली में एकत्र होकर भोजन (सहभोजन) करना तथा मुनिजनों द्वारा प्रदत्त आहारादि का ग्रहण करना संभोग है।
सम्भोग - प्रत्याख्यान का आशय श्रमण निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों का लक्ष्य है— आत्मनिर्भरता । यद्यपि प्रारम्भिक दशा में एक दूसरे से आहार- पानी, वस्त्र - पात्र, उपकरण, रुग्णावस्था में सेवा, आहार- पानी लाने का सहयोग, समवसरण, (धर्मसभा) में साथ बैठना, धर्मोपदेश साथ-साथ करना, परस्पर आदर-सत्कारवन्दनादि के आदान-प्रदान में सहयोग लेना पड़ता है। किन्तु अधिक सम्पर्क में जहाँ गुण हैं, वहाँ दोष भी आ जाते हैं । परस्पर संघर्ष, कलह, ईर्ष्या, द्वेष, पक्षपात, वैरविरोध, छिद्रान्वेषण, क्रोधादि कषाय कभी-कभी उग्ररूप धारण कर लेता है, तब असंयम बढ़ जाता है। अतः साधु को संभोग-त्याग का लक्ष्य रखना होता है, जिससे वह एकाग्रभाव में रह सके, रागद्वेषादि प्रपंचों से दूर शान्तिमय स्वस्थ संयमी जीवन-यापन कर सके । ऐसा व्यक्ति स्वयंलब्ध वस्तु का उपभोग करता है, दूसरे के लाभ का न तो उपभोग करता है और न ही स्पृहा करता है, न ही मन में विषमता लाता है। ऐसा करने से दिव्य, मानुष कामभोगों से स्वतः विरक्त हो जाता है। कितना उच्च आदर्श है साधुसंस्था का ! संभोगप्रत्याख्यान का आदर्श गीतार्थ होने से जिनकल्पादि अवस्था स्वीकार करने वाले साधु का है। २
१.
'एकमण्डल्यां स्थित्वा आहारस्य करणं सम्भोगः ।' २. (क) 'दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ते, तं जहा'.
(ख) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर ) पत्र २४८ (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र ५८८
बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष पृ. २१६ ..कहाए य पबंधणे।'
(ग) स्थानांग स्था. ४/३/३२५
- समवायांग १२ समवाय