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उत्तराध्ययनसूत्र
२३. सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ दिठें।
___ एक्कारस अंगाइं पइण्णगं दिट्ठिवाओ य॥ ___[२३] जिसने ग्यारह अंग, प्रकीर्णक एवं दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान को अर्थसहित अधिगत (दृष्ट या उपदेशप्राप्त) किया है वह अभिगमरुचि है।
२४. दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा।
सव्वाहि नयविहीहि यवित्थाररुइ त्ति नायव्वो॥ [२४] समस्त प्रमाणों और सभी नयविधियों से द्रव्यों के सभी भाव जिसे उपलब्ध (ज्ञात) हो गए हैं, उसे विस्ताररुचि जानना चाहिए।
२५. दंसण-नाण-चरित्ते-तव-विणए सच्च-समिइ-गुत्तीसु।
__ जो किरियाभावरुई सा खलु किरियारूई नाम॥ ___ [२५] दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसे भाव से रुचि है, वह क्रियारुचि है।
२६. अणभिग्गहिय-कुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो।
अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु॥ [२६] जो निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अकुशल है तथा अन्यान्य (-मिथ्या) प्रवचनों से भी अनभिज्ञ है; किन्तु कुदृष्टि का आग्रह न होने से अल्पबोध से ही जो तत्त्वश्रद्धा वाला है, उसे संक्षेपरुचि समझना चाहिए।
२७. जो अस्थिकायधम्मं सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च।
सदहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो॥ [२७] जो व्यक्ति जिनेन्द्र-कथित, अस्तिकायधर्म (धर्मास्तिकायादि अस्तिकायों के गुण-स्वभावादि धर्म) में, श्रुतधर्म में और चारित्रधर्म में श्रद्धा करता है, उसे धर्मरुचि वाला समझना चाहिए।
विवेचन–सम्यक्त्व की उत्पत्ति के प्रकार–प्रस्तुत १२ गाथाओं (१६ से २७ तक) में दस रुचियों का जो वर्णन किया गया है, वह विभिन्न निमित्तों से उत्पन्न होने वाले सम्यग्दर्शन के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण है। यहाँ रुचि का अर्थ है-सत्यप्राप्ति के विभिन्न निमित्तों के प्रति श्रद्धा। इन दस रुचियों को तत्त्वार्थसूत्र में 'तनिसर्गादधिगमाद् वा' कह कर निसर्ग ओर अधिगम इन दो सम्यक्त्वोत्पत्ति—निमित्तों में समाविष्ट कर दिया है। स्थानांगसूत्र में इन्हें 'सरागसम्यग्दर्शन' कहा है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में इन्हें दस प्रकार के 'दर्शनआर्य' बताया है। राजवार्तिक में तथा उत्तराध्ययन में प्रतिपादित कुछ नाम समान हैं, कुछ भिन्न हैं। यथाआज्ञारुचि, उपदेशरुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, संक्षेपरुचि, विस्ताररुचि, इन नामों साम्य है, किन्तु निसर्गरुचि, अभिगमरुचि, क्रियारुचि एवं धर्मरुचि इन चार के बदले क्रमशः मार्गरुचि, अर्थरुचि अवगाढरुचि और परमअवगाढरुचिदर्शनार्य नाम हैं। इनकी व्याख्या में भी कुछ भिन्नता है। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६३ (ख) स्थानांग. १०/७५१ (ग) राजवार्तिक ३/३६, पृ. २०१