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उत्तराध्ययनसूत्र
परिहारविशुद्धि चारित्र-परिहार का अर्थ है—प्राणिवध से निवृत्ति। परिहार से जिस चारित्र में कर्मकलंक की विशुद्धि (प्रक्षालन) की जाती है, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। इसकी विधि इस प्रकार हैइसकी आराधना ९ साधु मिलकर करते हैं। इसकी अवधि १८ महीने की होती है। प्रथम ६ मास में ४ साधु तपस्या (ऋतु के अनुसार उपवास से लेकर पंचौला तक की तपश्चर्या) करते हैं, चार साधु उनकी सेवा करते हैं और एक वाचनाचार्य (गुरुस्थानीय) रहता है। दूसरे ६ महीनों में तपस्या करने वाले सेवा और सेवा करने वाले तप करते हैं, वाचनाचार्य वही रहता है। इसके पश्चात् तीसरी छमाही में वाचनाचार्य तप करते हैं, शेष साधु उनकी सेवा करते हैं। तप की पारणा सभी साधक आयम्बिल से करते हैं, उनमें से एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है। इस दृष्टि से परिहार का तात्पर्यार्थ-तप होता है, उसी से विशेष आत्म-शुद्धि की जाती है। जब साधक तप करता है तो प्राणिवध के आरम्भ-समारम्भ के दोष से सर्वथा निवृत्त हो ही जाता है।
सूक्षमसम्पराय चारित्र—सामायिक अथवा छेदोपस्थानीय चारित्र की साधना करते-करते जब क्रोधादि तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, केवल लोभकषाय सूक्ष्म रूप में रह जाता है, इस स्थिति को सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहा जाता है। यह चारित्र दशम गुणस्थानवर्ती साधुओं को होता है।
यथाख्यात चारित्र-जब चारों कषाय सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्रिक स्थिति को यथाख्यात चारित्र कहते हैं । यह चारित्र गुणस्थान की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त है-उपशमात्मक यथाख्यात चारित्र और क्षयात्मक यथाख्यात चारित्र । प्रथम चारित्र ११ वें गुणस्थान वाले साधक को और द्वितीय चारित्र १२वें आदि ऊपर के गुणस्थानों के अधिकारी महापुरुषों के होता हैं । सम्यक् तप : भेद-प्रभेद
३४. तवो य दुविहो वृत्तो बाहिरऽब्भन्तरो तहा।
बाहिरो छव्विहो वुत्तो एवमब्भन्तरो तवो॥ [३४] तप दो प्रकार का कहा गया है—बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का है। इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है।
विवेचन-मोक्ष का चतुर्थ साधन-तप अंतरंग एवं बहिरंग रूप से कर्मक्षय (निर्जरा) या आत्मविशुद्धि का कारण होने से मुक्ति का विशिष्ट साधन है। इसलिए इसे पृथक् मोक्षमार्ग के रूप में यहाँ स्थान दिया गया है। तप की भेद-प्रभेदसहित विस्तृत व्याख्या 'तपोमार्गगति' नामक तीसवें अध्ययन में दी गई है। १. (क) परिहरणं परिहारः-प्राणिवधान्निवृत्तिरित्यर्थः। परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्मकलंकप्रक्षालनं यस्मिन् चारित्रे
__तत्परिहारविशुद्धिचारित्रमिति। (ख) स्थानांग ५/४२८ वृत्ति, पत्र ३२४
(ग) प्रवचनसारोद्धार ६०२-६१० २. 'सूक्ष्मः-किट्टीकरणत: संपर्येति—पर्यटति अनेन संसारमिति सम्परायो—लोभाख्यः कषायो यस्मिंस्तत्सूक्ष्म सम्परायम्।'
-बृहवृत्ति, पत्र ५६८ ३. सुह-असुहाण णिवित्ति चरणं साहुस्स वीयरायस्स। -बृहद् नयचक्र गा. ३७८