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-उनतीसवाँ अध्ययन
सम्यक्त्वपराक्रम अध्ययन-सार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम सम्यक्त्व-पराक्रम है। इससे सम्यक्त्व में पराक्रम करने का, अथवा सम्यक्त्व
अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप के प्रति सम्यक्प में श्रद्धा करने का दिशानिर्देश मिलता है, इसलिए
यह गुणनिष्पक्ष नाम है। कई आचार्य इसे 'वीतरागश्रुत' अथवा 'अप्रमादश्रुत' भी कहते हैं। * इसमें अध्यात्मसाधना अथवा मोक्षप्राप्ति की साधना का सम्यक् दृष्टिकोण, महत्त्व, परिणाम और
लाभ सूचित किया गया है। इसमें सम्पूर्ण उत्तराध्ययनसूत्र के सार का समावेश हो जाता है। इसमें ___ अध्यात्मसाधना-पद्धति के प्रत्येक प्रमुख साधन पर गंभीरता से चर्चा-विचारणा की गई है। छोटे-छोटे
सूत्रात्मक प्रश्न हैं, किन्तु उनके उत्तर गम्भीर एवं तलस्पर्शी हैं और अध्यात्मविज्ञान पर आधारित हैं। * प्रस्तुत अध्ययन में ७३ प्रश्न और उनके उत्तर हैं । ७३ बोलों की फलश्रुति बहुत ही गहनता के साथ बताई
गई है। प्रश्नोत्तरों का क्रम इस प्रकार है-(१) संवेग, (२) निर्वेद, (३) धर्मश्रद्धा, (४) गुरुसाधर्मिकशुश्रूषा, (५) आलोचना, (६) निन्दना, (७) गर्हणा, (८) सामायिक, (९) चतुर्विंशतिस्तव, (१०) वन्दना, (११) प्रतिक्रमण, (१२) कायोत्सर्ग, (१३) प्रत्याख्यान, (१४) स्तवस्तुतिमंगल, (१५) कालप्रतिलेखना, (१६) प्रायश्चित्तकरण, (१७) क्षमापना, (१८) स्वाध्याय, (१९) वाचना, (२०) प्रतिपृच्छना, (२१) परावर्तना (पुनरावृत्ति), (२२) अनुप्रेक्षा (२३) धर्मकथा, (२४) श्रुतआराधना, (२५) मन की एकाग्रता, (२६) संयम, (२७) तप, (२८) व्यवदान (विशुद्धि), (२९) सुखशात, (३०) अप्रतिबद्धता, (३१) विविक्तशयनासन-सेवन, (३२) विनिवर्त्तना, (३३) संभोगप्रत्याख्यान, (३४) उपधि-प्रत्याख्यान, (३५) आहार-प्रत्याख्यान, (३६) कषाय-प्रत्याख्यान, (३७) योग-प्रत्याख्यान, (३८) शरीर-प्रत्याख्यान, (३९) सहाय-प्रत्याख्यान, (४०) भक्त-प्रत्याख्यान, (४१ सद्भाव-प्रत्याख्यान, (४२) प्रतिरूपता, (४३) वैयावृत्त्य, (४४) सर्वगुणसम्पन्नता, (४५) वीतरागता, (४६) शान्ति, (४७) मुक्ति (निर्लोभता), (४८) आर्जव, (४९) मार्दव, (५०) भावसत्य, (५१) करणसत्य, (५२) योगसत्य, (५३) मनोगुप्ति, (५४) वचनगुप्ति, (५५) कायगुप्ति, (५६) मन:समाधारणा, (५७) वचःसमाधारणा, (५८) कायसमाधारणा, (५९) ज्ञानसम्पन्नता, (६०) दर्शनसम्पन्नता, (६१) चारित्रसम्पन्नता, (६२) क्षोत्रेन्द्रियनिग्रह, (६३) चाक्षुरिन्द्रियनिग्रह, (६४) घ्राणेन्द्रियनिग्रह, (६५) जिह्वेन्द्रियनिग्रह, (६६) स्पर्शेन्द्रियनिग्रह, (६७) क्रोधविजय, (६८) मानविजय, (६९) मायाविजय, (७०) लोभविजय और (७१) प्रेय द्वेष-मिथ्यादर्शनविजय, (७२) शैलेशी, (७३)
अकर्मता। * अन्त में योगनिरोध एवं शैलेशी अवस्था का क्रम एवं मुक्त जीवों की गति-स्थिति आदि का निरूपण
किया गया है। अतः सम्यक्प से पूर्ण श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, स्पर्शन, पालन करने से, गहराई से जानने से, इसके गुणोत्कीर्तन से, शोधन से, आराधन से, आज्ञानुसार अनुपालन से साधक परिपूर्णता के–मुक्ति के शिखर पर पहुंच सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। 00