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उत्तराध्ययनसूत्र
सायणसीले नेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देव-दोग्गईओ निरुम्भइ। वण्ण-संजलण-भत्तिबहुमाणयाए मणुस्स-देवसोग्गईओ निबन्धइ, सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ।
पसत्थाइं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाइं साहेइ।अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ॥ [५ प्र.] गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से, भगवन् ! जीव क्या (फल) प्राप्त करता है?
[उ.] गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय-प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। विनय-प्रतिपन्न व्यक्ति (परिवादादिरूप) आशातनारहित स्वभाव वाला होकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध कर देता है। वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान के कारण वह मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति (आयु) का बन्ध करता है। श्रेष्ठ गति और सिद्धि का मार्ग प्रशस्त (शुद्ध) करता है। विनयमूलक सभी (प्रशस्त) कार्यों को साधता (सिद्धि करता) है। बहुत-से दूसरे जीवों को भी विनयी बना देता है।
विवेचन—सुश्रूषा : स्वरूप-(१) गुरु के आदेश को विनयपूर्वक सुनने की इच्छा, (२) परिचर्या, (३) न अतिदूर और न अतिनिकट, किन्तु विधिपूर्वक सेवा करना, (४) गुरु आदि की वैयावृत्य, (५) सद्बोध तथा धर्मशास्त्र सुनने की इच्छा।
विणयपडिवत्ति-विनय का प्रारम्भ अथवा विनय का अंगीकार । विनयप्रतिपत्ति के चार अंग-प्रस्तुत सूत्र (५) में विनयप्रतिपति के चार अंग बताए गए हैं
(१) वर्ण श्लाघा-गुणगुरु व्यक्ति की प्रशंसा, (२) संज्वलन-गुणप्रकाशन, (३) भक्ति-हाथ जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा होना, आदर देना आदि और (४) बहुमान-आन्तरिक प्रीतिवेशेष या वात्सल्य-वश मन में आदरभाव।
मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति—यों तो मनुष्यगति और देवगति, ये दोनों सुगतियाँ हैं, किन्तु जब मनुष्यगति में म्लेच्छता, दरिद्रता, अंगविकलता आदि मिलती है और देवगति में निम्नतम निकृष्ट जाति, किल्विषीपन आदि मिलते हैं, तब उन्हें दुर्गति समझना चाहिए। ५. आलोचना से उपलब्धि
६-आलोयणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ?
आलोयणाएणं माया-नियाण-मिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणन्तसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ। उज्जुभावं च जणयइ। उज्जुभावपडिवन्ने यणं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसगवेयं च न बन्धइ। पुव्वबद्धं च णं निजरेइ।
[६ प्र.] भंते! आलोचना से जीव को क्या लाभ होता है?
[उ.] आलोचना से मोक्षमार्ग में विघ्नकारक और अनन्त संसारवर्द्धक मायाशल्य, निदानशल्य और १. (क) सूत्रकृतांग श्रु. १. अ. ९ (ख) दशवैकालिक अ. ९, उ.१ (ग) अष्टक २५,
(घ) सद्बोधः। धर्मशास्त्रश्रवणेच्छा-पंचाशक ६ विवरण २. विनयप्रतिपत्ति:-प्रारम्भे अंगीकारे वा। वर्णः श्लाघा, संज्वलनं—गुणोद्भासनम्, भक्ति:-अंजलिप्रग्रहादिका, बहुमानम्-आन्तरप्रीतिविशेषः।
-बृहवृत्ति, पत्र ५७९ ३. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २७३