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उत्तराध्ययनसूत्र प्रगाढ बन्धन को शिथिल कर लेता है, दीर्घकालीन स्थिति को ह्रस्व (अल्प) कालीन कर लेता है, उनके तीव्र रसानुभाव को मन्दरसानुभाव कर लेता है, बहुकर्मप्रदेशों को अल्पप्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं करता। असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता। संसाररूपी अटवी, जो कि अनादि और अनवदग्र (अनन्त) है, दीर्घमार्ग से युक्त, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त हैं, उसे शीघ्र ही पार कर लेता है।
२४. धम्मकहाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
धम्मकहाए णं निजरं जणयइ। धम्मकहाए णं पवयण पभावेइ। पवयणपभावे णं जीवे आगमिसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबन्धइ॥
[२४ प्र.] भन्ते! धर्मकथा से जीव को क्या प्राप्त होता है?
[उ.] धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले कर्मों का बन्ध करता है। २५. सुयस्स आराहणयाए णं भन्ते! जीवे किं जणयइ?
सुयस्स आराहणयाए णं अन्नाणं खवेइ, न य संकिलिस्सइ॥ [२५ प्र.] भन्ते! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता है? (उ.) श्रुत की आराधना से जीव अज्ञान का क्षय करता है और क्लेश को प्राप्त नहीं होता।
विवेचन–सप्तसूत्री प्रश्नोत्तरी-सू. १९ से २५ तक सात सूत्रों में स्वाध्याय, वाचना, प्रतिपृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा एवं श्रुत-आराधना से होने वाली उपलब्धियों से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी है।
स्वाध्याय आदि का स्वरूप-स्वाध्याय : तीन निर्वचन-(१) सुन्दर अध्ययन, (२) सुष्ठु मर्यादा सहित जिसका अध्ययन किया जाता है, (३) शोभन मर्यादा-काल वेला छोड़ कर पौरुषी की अपेक्षा अध्ययन करना स्वाध्याय है।
वाचना : तीन अर्थ (१) शास्त्र की वाचना देना-अध्यापन (पाठन) करना, (२) स्वयं शास्त्र बांचना-पढना, अथवा (३) गुरु या श्रुतधर से शास्त्र अध्ययन करना। प्रतिपृच्छना ली हुई शास्त्रवाचना या पूर्व-अधीत शास्त्र में किसी विषय पर शंका उत्पन्न होने पर गुरु आदि से पूछना। परिवर्तना-आवृत्ति करना, पूछ कर समाहित किये या परिचित विषय का विस्मरण न हो, इसलिए उस सूत्र के पाठ, अर्थ आदि का गुणन करना, बार-बार स्मरण करना । अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर सूत्रार्थ का बार-बार चिन्तन करना, नयी-नयी स्फुरणा होना। धर्मकथा-स्थिरीकृत एवं चिन्तन विषय पर धर्मापदेशन करना। श्रुताराधना-शास्त्र या सिद्धान्त की सम्यक् आसेवना।२
१. (क) अध्ययनम् अध्यायः, शोभन: अध्यायः स्वाध्यायः-आव. ४.
(ख) सुष्ठ, आ मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः, -स्थानांग २ स्था. २ उ.। (ग) सुष्ठ, आ मर्यादया-कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायः स्वाध्यायः।-धर्मसंग्रह अधि. ३ (क) वाचना–पाठनम्, (ख) पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः शंकितादौ प्रश्नः पृच्छना, (ग) परिवर्तना-गुणनम्,
(घ)अनुप्रेक्षा–चिन्तनम् (ङ) धर्मस्य श्रुतरूपस्य कथा–व्याख्या धर्मकथा। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५८३