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सत्तावीसइमं अज्झयणं : खलुंकिज्जं
सत्ताईसवाँ अध्ययन : खलुंकीय गार्य मुनि का परिचय
१. थेरे गणहरे गग्गे मुणी आसि विसारए ।
आइण्णे गणिभवम्मि समाहिं पडिंसधए । __ [१] गर्गगोत्रोत्पन्न गार्ग्य मुनि स्थविर, गणधर और (सर्वशास्त्र) विशारद थे, (आचार्य के) गुणों से व्याप्त (युक्त) थे, गणिभाव में स्थित थे, (तथा) समाधि में (स्वयं को) जोड़ने (प्रतिसन्धान करने) वाले थे।
विवेचन स्थविर आदि शब्दों के विशेषार्थ स्थविर–धर्म में स्थिर करने वाला, वृद्ध। गणधरगण अर्थात् गच्छ को धारण करने वाला गणी। मुनि जो सर्वसावधविरमण का मनन (संकल्प या प्रतिज्ञा) करता है। विशारद-सर्वशास्त्र-निपुण। आइण्णे-आकीर्ण-व्याप्त या युक्त। गणिभावम्मि-गणिभाव में-आचार्यपद में, आसि-स्थित थे।
____समाहिं पडिसंधए— (१) वह (गार्याचार्य) समाधि का प्रतिसंधान करते थे। अर्थात् कुशिष्यों के द्वारा ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप भाव-समाधि या चित्त-समाधि को तोड़ने या भंग करने पर भी वे पुनः जोड़ लेते थे अर्थात् अपने चित्त को समाधि में लगा लेते थे। (२) अथवा बृहवृत्तिकार के अनुसार कर्मोदय से नष्ट हुई अविनीत शिष्यों की समाधि का पुनः प्रतिसंधान कर लेते (जोड़ लेते) थे। विनीत वृषभवत् विनीत शिष्यों से गुरु को समाधि
२ वहणे वहमाणस्स कन्तारं अइवत्तई।
___ जोए वहमाणस्स संसारो अइवत्तई। __ [२] (गाड़ी आदि) वाहन में जोड़े हुए विनीत वृषभ आदि को हांकते हुए पुरुष का अरण्य (जैसे) सुखपूर्वक पार हो जाता है, उसी तरह योग (- संयमव्यापार) में (जोड़े हुए सुशिष्यों को) प्रवृत्त करते हुए (आचार्यादि का) संसार भी सुखपूर्वक पार हो जाता है।
विवेचन—प्रस्तुत गाथा की दो व्याख्याएँ-(१) एक व्याख्या ऊपर दी गई है, (२) दूसरी व्याख्या इस प्रकार है- शकटादि वाहन को ठीक तरह से वहन करने वाला बैल जैसे कान्तार-जंगल को सुखपूर्वक पार करता है, उसी तरह योग (संयम) में संलग्न मुनि संसार को पार कर जाता है। आशय यह है शिष्यों के विनीतभाव को देख कर गुरु स्वयं समाधिमान् हो जाता है। शिष्य भी विनीतभाव से स्वयं संसार को पार १. (क) उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ३, पृ.७२५ (ख) उत्तरा. (गुज. भाषान्तर) भा. २, पत्र २१९ २ (क) उत्तरा. वृत्ति, अभिधान रा. को. भा. ३, पृ.७२५ : कुशिष्यैः त्रोटितं ज्ञानदर्शनचारित्राणां समाधिं प्रतिरुन्धते।
(ख) कर्मोदयात् त्रुटितमपि (समाधि) संघद्रयति, तथाविधशिष्याणामिति गम्यते। -बहत्ति , पत्र ५५०