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उत्तराध्ययनसूत्र
फिर परिवर्तन स्थूल भी होता है, सूक्ष्म भी। इस अपेक्षा से पर्याय के दो रूप और बनते हैं-व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्याय । व्यञ्जनपर्याय कहते हैं—स्थूल और कालान्तरस्थायी पर्याय को तथा अर्थपर्याय कहते हैं—सूक्ष्म और वर्तमानकालवर्ती पर्याय को।
इन और ऐसे ही अन्य परिवर्तनों के आधार पर प्रस्तुत अध्ययन की १३ वीं गाथा में एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग, विभाग आदि को पर्याय का लक्षण बताया गया है।
लोक षड्द्रव्यात्मक क्यों और कैसे?—'लोक' क्या है? इसका समाधान जैनागमों में चार प्रकार से किया गया है। भगवतीसत्र में एक जगह 'धर्मास्तिकाय'को लोक कहा गया. दसरी जगह लोक को पं कहा गया है तथा उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन में तथा स्थानांगसूत्र में जीव और अजीव को लोक कहा गया है। प्रस्तुत गा.७ में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा गया है। अत: अपेक्षाभेद से यह सब कथन समझना चाहिए, इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक हैं। पुद्गल और जीव संख्या में अनन्त-अनन्त हैं।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का उपकार-भगवतीसूत्र में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जब इन दोनों के उपकार के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा—गौतम! जीवों के गमन आगमन, भाषा, उन्मेष, मन, वचन और काय के योगों की प्रवृत्ति तथा इसी प्रकार के अन्य चलभाव धर्मास्तिकाय से ही होते हैं। इसी प्रकार जीवों की स्थिति, निषीदन, शयन, मन का एकत्वभाव तथा ऐसे ही अन्य स्थिरभाव अधर्मास्तिकाय से होते हैं। धर्म और अधर्म ये दोनों लोक में ही हैं, अलोक में नहीं।
आकाशास्तिकाय का उपकार सभी द्रव्यों को अवकाश देना है।
काल का लक्षण और उपकार-काल का लक्षण है-वर्तना। आशय यह है कि नये को पुराना और पुराने को नया बनाना काल का लक्षण है। काल के उपकार या लिंग पांच हैं—वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व
और अपरत्व । श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार काल जीव-अजीव की पर्याय तथा व्यवहारदृष्टि से द्रव्य माना जाता है। काल को मानने का कारण उसकी उपयोगिता है, वह परिणाम का हेतु है, यही उसका उपकार है। व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्रप्रमाण और औपचारिक द्रव्य है। दिगम्बरपरम्परा के अनुसार काल लोकव्यापी एवं अणुरूप है और कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है। १. (क) परि-समन्तात् आय:-पर्यायः।
-राजवार्तिक १/३३/१/९५ (ख) स्वभावविभावरूपतया याति पर्येति परिणमतीति पर्यायः। -आलापपद्धति ६ (ग) तद्भावः परिणाम:-उसका होना–प्रति समय बदलते रहना पर्याय है। (घ) अथवा द्वितीयप्रकारेणार्थव्यञ्जनपर्यायरूपेण द्विधा पर्याया भवन्ति। -पंचास्तिकाय ता. वृ. १६/३५/१२ (ङ) 'सब्भावं ख विहावं दव्वाणं पज्जयं जिणहिदठं॥'
-बृहद्नयचक्र १७-१८ (च) धवला ९/४,१,४८ २. (क) भगवती २/१०, तथा १३/४
(ख) उत्तरा, अ. ३६/२ तथा स्थानांग. २/४/१३० ३. (क) भगवतीसूत्र १३/४
(ख) उत्तरा. अ. २८/९ (ग) गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः, आकाशस्यावगाहः। -तत्त्वार्थ. अ.५/१७-१८