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सत्ताईसवाँ अध्ययन : खलुकीय
४३३ से कोई रस का गौरव करता है, कोई साता (-सुख) का गौरव करता है, तो कोई शिष्य चिरकाल तक क्रोधयुक्त रहता है।
१० भिक्खलसिए एगे एगे ओमाणभीरूए थद्धे।
___एगं च अणुसासम्मी हेऊहिं कारणेहि य॥ [१०] कोई भिक्षाचरी करने में आलसी है, तो कोई अपमान से डरता है तथा कोई शिष्य स्तब्ध (अहंकारी) है, किसी को मैं हेतुओं और कारण से अनुशासित करता (शिक्षा देता) हूँ, (फिर भी वह समझता नहीं।)
११ सो वि अन्तरभासिल्लो दोसमेव पकुव्वई।
आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं॥ [११] इतने पर भी वह बीच में बोलने लगता है, (गुरु के वचन में) दोष निकालने लगता है, आचार्यों के उस (शिक्षाप्रद) वचन के प्रतिकूल बार-बार आचरण करता है।
१२ न सा ममं वियाणाइ न वि सा मज्झ दाहिई।
निग्गया होहिई मन्ने साहू अनोऽत्थ वच्चउ॥ [२२] (किसी के यहाँ से भिक्षा लाने के लिए कहता हूँ, तो कोई शिष्य उत्तर देता है- ) वह (श्राविका) मुझे नहीं जानती (पहचानती), अतः वह मुझे देगी भी नहीं। (अथवा कहता है- ) मैं समझता हूँ, वह घर से बाहर चली गई होगी। अथवा- इसके लिए कोई दूसरा साधु जाए।
१३ पेसिया पलिउंचन्ति ते परियन्ति समन्तओ।
रायवेढेि व मन्नन्ता करेन्ति भिउडिं मुहे॥ [१३] (किसी प्रयोजनविशेष से) भेजने पर, (बिना कार्य किये) वापस लौट आते हैं, (अथवा अपलाप करते हैं), यों वे इधर-उधर चारों ओर भटकते रहते हैं। किन्तु गुरु की आज्ञा का राजा के द्वारा ली जाने वाली वेठ (बेगार) की तरह मान कर मुख पर भृकुटि चढ़ा लेते हैं।
१४ वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया।
जायपक्खा जहा हंसा पक्कमन्ति दिसोदिसिं॥ _[१४] जैसे पंख जाने पर हंस विभिन्न दिशाओं में उड़ जाते हैं, वैसे ही शिक्षित एवं दीक्षित किये हुए, पास में रखे हुए तथा भक्त-पान से पोषित किये हुए कुशिष्य भी (गुरु को छोड़कर) अन्यत्र (विभिन्न दिशाओं में) चले जाते हैं।
१५ अह सारही विचिन्तेइ खलुंकेहिं समागओ।
किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई॥ [१५] ऐसे अविनीत शिष्यों से युक्त धर्मयान के सारथी आचार्य खिन्न होकर सोचते हैं- मुझे इन दुष्ट शिष्यों से क्या लाभ? (इनमें तो) मेरी आत्मा अवसन्न ही होती (दुःख ही पाती) है।
विवेचन–इड्डिगारविए : ऋद्धिगौरविक : आशय- मेरे श्रावक धनाढ्य हैं, अमुक धनिक श्रावक