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छव्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी
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[१२] (अर्थात्–दिन के) प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में ध्यान करे, तीसरे में भिक्षाचर्या करे और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे ।
विवेचन — पुव्विल्लंमि चउब्भाए : दो व्याख्याएं – (१) बृहद्वृत्ति के अनुसार — पूर्वदिशा में, आकाश में चतुर्थभाग में कुछ कम सूर्य के चढ़ने पर अर्थात्-पादोन पोरसी आ जाए तब । अथवा (२) वर्तमान में प्रचलित परम्परा के अनुसार — दिन के प्रथम प्रहर का चतुर्थ भाग । साधारणतया ३ घंटा १२ मिनिट का यदि प्रहर हो तो उसका चतुर्थ भाग ५२ - मिनट का होता है। आशय यह है, सूर्योदय होने पर प्रथम प्रहर के चतुर्थ भाग यानी ४८ या ५२ मिनट की अवधि तक में वस्त्र-पत्रादि उपकरणों की प्रतिलेखना क्रिया पूर्ण कर लेनी चाहिए ।"
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दैनिक कृत्य — १२वीं गाथा में ४ प्रहरों में विभाजित दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करने का निर्देश किया है। इससे पूर्व ८वीं गाथा में प्रथम प्रहर के चौथे भाग में प्रतिलेखना से निवृत्त होकर वाचनादि स्वाध्याय करने बैठ जाए, यदि गुरु की आज्ञा स्वाध्याय की हो। यदि उनकी आज्ञा ग्लानादि की वैयावृत्य (सेवा) करने की हो तो वैयावृत्य में संलग्न हो जाए। यदि गुरुआज्ञा स्वाध्याय की हो तो प्रथम प्रहर में स्वाध्याय के पश्चात् दूसरे प्रहर में ध्यान करे। द्वितीय पौरुषी को अर्धपौरुषी कहते हैं, इसलिए मूलपाठ के अर्थ के विषय में चिन्तन (ध्यान) करना अभीष्ट है, ऐसा वृत्तिकार का कथन है। तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या करे । इसे गोचरकाल कहा गया है, इसलिए भिक्षाचर्या, आहार अतिरिक्त उपलक्षण से ( स्थण्डिलभूमि में मलोत्सर्ग आदि के लिए) बहिर्भूमि जाने आदि का कार्य करे। इसके पश्चात् चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय का विधान है, वहाँ भी उपलक्षण से प्रतिलेखन आदि क्रिया समझ लेनी चाहिए। दिन की यह चतुर्विभागीय चर्या औत्सर्गिक है। अपवादमार्ग में इसमें कुछ परिवर्तन भी हो सकता है, अथवा गुरु की आज्ञा वैयावृत्य की हो तो मुख्यता उसी की रहेगी । उससे समय बचेगा तो स्वाध्यायादि भी होगा । २
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अगिला ओ : विशेषार्थ — यह शब्द वैयावृत्य के साथ जुड़ता है, तब अर्थ होता है - शरीर - श्रम की चिन्ता न करके एवं स्वाध्याय के साथ जुड़ता है, तब अर्थ होता है— स्वाध्याय को समस्तं तपःकर्मों में प्रधान मानकर विना थके या विना मुर्झाए उत्साहपूर्वक करे।
पौरुषी का काल-परिज्ञान
१३. आसाढे मासे दुपया पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोएस मासेसु तिपया हवइ पोरिसी ।।
१. (क) पुव्विल्लंमि त्ति- पूर्वस्मिश्चुर्भागे, आदित्ये समुत्थिते - समुद्गते, इह च यथा दशाविकलोऽपि परः पर एवोच्यते, एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः । ततोऽयमर्थः — बुद्धया नभश्चतुर्धा विभज्यते । तत्र पूर्वदिक्सम्बद्धे किञ्चिदूननभश्चतुर्भागे यदादित्यः समुदेति तदा, पादोनपौरुष्यामित्युक्तं भवति । —बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६ (ख) पूर्वस्मिंश्चतुर्भागे प्रथमपौरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य ।
—वही, पत्र ५४०
२. (क) 'समत्तपडिलेहणाए सज्झाओ' - समाप्तायां प्रत्युपेक्षणायां स्वाध्यायः कर्त्तव्यः सूत्रपौरुषीत्यर्थः । पादोन प्रहरं यावत् । — ओघनिर्युक्ति वृत्ति, पत्र ११५
(ख) आदित्ये समुत्थिते इव समुत्थिते, बहुतरप्रकाशीभवनात्तस्य । —बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६