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वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय
नाथ बन जाता; यह मुनि के कहने का आशय है । १
विम्हयन्नओ- —वह श्रेणिक नरेन्द्र पहले ही मुनि के रूपादि को देखकर विस्मत था, फिर तू अनाथ है, इस प्रकार की अश्रुतपूर्व बात सुनते ही और भी अधिक आश्चर्यान्वित एवं अत्याकुल हो गया । २
इड्डिमंतस्स — ऋद्धिमान् — आश्चर्यजनक आकर्षक वर्णादि सम्पत्तिशाली । ३
'कहं नाहो न विज्नई ?' - श्रेणिक राजा के कथन का आशय यह है कि 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ' इस न्याय से आपकी आकृति से आप अनाथ थे, ऐसा प्रतीत नहीं होता। आपकी आकृति ही आप सनाथता की साक्षी दे रही है। फिर जहाँ गुण होते हैं, वहाँ धन होता है और धन होता है, वहाँ 'श्री' और श्रीमान् में आज्ञा और जहाँ आज्ञा हो वहाँ प्रभुता होती है यह लोकप्रवाद है । इस दृष्टि से आप में अनाथता सम्भव नहीं है।
होमि नाहो भयंताणं श्रेणिक राजा के कहने का अभिप्राय यह है कि इतने पर भी यदि अनाथता ही आपके प्रव्रज्या ग्रहण का कारण है तो मैं आपका नाथ बनता हूँ। आप सनाथ बनकर मित्र - ज्ञातिजन सहित यथेच्छ भोगों का उपभोग कीजिए और दुर्लभ मनुष्य जन्म को सार्थक कीजिए ।
श्रेणिक राजा 'नाथ' का अर्थ- 'योगक्षेम करने वाला' समझा हुआ था, इसी दृष्टि से उसने मुनि से कहा था कि मैं आपका नाथ (योगक्षेमविधाता) बनता हूँ। अप्राप्त की प्राप्ति को 'योग' और प्राप्त वस्तु के संरक्षण को 'क्षेम' कहते हैं। श्रेणिक ने मुनि के समक्ष इस प्रकार के योगक्षेम को वहन करने का दायित्व स्वयं लेने का प्रस्ताव रखा था । ५
आणाइस्सरियं च मे - (१) आज्ञा-अस्खलितशासनरूप, और ऐश्वर्य — द्रव्यादिसमृद्धि, अथवा (२) आज्ञा सहित ऐश्वर्य - प्रभुत्व, दोनों मेरे पास हैं।
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निष्कर्ष - राजा भौतिक सम्पदाओं और प्रचुर भोगसामग्री आदि के स्वामी को ही 'नाथ' समझ रहा था। इसलिए मुनि ने उसको कहा—तुम नहीं जानते कि पुरुष 'अनाथ' या ' सनाथ' कैसे होता है ?७
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१. न केनचिदनुकम्पकेन सुहृदा वा संगतोऽहमित्यादिनाऽर्थेन तारुण्येऽपि प्रव्रजित इति भावः । - बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ २. वही, पत्र ४७४
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३. वही, पत्र ४७३
४. वही, पत्र ४७३ : "यत्राकृतिस्तत्र गुप्पा वसन्ति, तथा 'गुणवति धनं, ततः श्रीः, श्रीमत्याज्ञा, ततो राज्यमिति' लोकप्रवादः । तथा च न कथञ्चिदनाथत्वं भवतः सम्भवतीति भावः । '
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७.
(क) यदि अनाथतैव भवतः, प्रव्रज्याप्रतिपत्तिहेतुस्तदा भयाम्यहं भदन्तानां - पूज्यानां नाथः । मयि नाथे मित्राणि ज्ञातयो भोगाश्च तव सुलभा एवेत्यभिप्रायेण भोगेत्याद्युक्तवान्।"
(ख) 'नाथः योगक्षेमविधाता' । — बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ आज्ञा-अस्खलितशासनात्मिका, ऐश्वर्यं च द्रव्यादिसमृद्धि:, यद्वा आज्ञया ऐश्वर्यं - प्रभुत्वम्-आज्ञैश्वर्यम्।
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– वही, पत्र ४७४
'अनाथशब्दस्यार्थं चाभिधेयम्, उत्थां वा — उत्थानं मूलोत्पत्तिं, केनाभिप्रायेण मयोक्तमित्येवंरूपाम् । अथवा – अर्थ, प्रोत्थां वा – प्रकृष्टोत्थानरूपामतएव यथाऽनाथः सनाथो वा भवति तथा च न जानीषे इति सम्बन्धः । "
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—बृहद्वृत्ति, पत्र ४७५