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उत्तराध्ययनसूत्र
[१३] (वर्द्धमान महावीर द्वारा प्रतिपादित) यह जो अचेलकधर्म है और यह जो (भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्ररूपित) सान्तरोत्तर धर्म है, एक ही कार्य (मुक्तिरूप कार्य) में प्रवृत्त हुए इन दोनों में विशेष भेद का क्या कारण है?
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विवेचन- अल्लीणा- -(१) आलीन—आत्मा में लीन, (२) अलीन—— मन-वचन-कायगुप्तियों से युक्त या गुप्त ।
दोनों के शिष्यसंघों में चिन्तन क्यों और कब उठा ? — दोनों के शिष्यवृन्द जब भिक्षाचर्या आदि के लिए गमनागमन करते थे, तब एक दूसरे के वेष, क्रियाकलाप और आचार-विचार को देख कर उनके मन में विचार उठे, शंकाएँ उत्पन्न हुईं कि हम दोनों के धर्म-प्रवर्तकों (तीर्थंकरों) का उद्देश्य तो एक ही है मुक्ति प्राप्त करना । फिर क्या कारण है कि हम दोनों के द्वारा गृहीत महाव्रतों में अन्तर है? अर्थात् — हमारे तीर्थंकर (भ. वर्धमान) ने पांच महाव्रत बताए हैं और इनके तीर्थंकर (भ. पार्श्वनाथ) ने चातुर्याम (चार महाव्रत ) ही बताए हैं? और फिर इनके वेष और हमारे वेष में भी अन्तर क्यों है? २
आयारधम्मपणिही : विशेषार्थ- - आचार का अर्थ है - आचरण अर्थात् वेषधारण आदि बाह्य क्रियाकलाप, वही धर्म है, क्योंकि वह भी आत्मशुद्धि या ज्ञान-दर्शन- चारित्र के विकास का साधन बनता है, अथवा सुगति में आत्मा को पहुँचाता है, इसलिए धर्म है । प्रणिधि का अर्थ है — व्यवस्थापन । समग्र पंक्ति का अर्थ हुआ— बाह्यक्रियाकलापरूप धर्म की व्यवस्था । ३
चाउज्जामो य जो धम्मो - चातुर्यामरूप (चार महाव्रतवाला) साधुधर्म जिसे महामुनि पार्श्वनाथ ने बताया है। चातुर्याम धर्म इस प्रकार है— (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) चौर्यत्याग और (४) बहिद्धादानत्याग । भगवान् पार्श्वनाथ ने ब्रह्मचर्यमहाव्रत को परिग्रह ( बाह्य वस्तुओं के आदान— ग्रहण) के त्याग (विरमण) में इसलिए समाविष्ट कर दिया था कि उन्होंने 'मैथुन' को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। स्त्री को परिगृहीत किये बिना मैथुन कैसे होगा? इसीलिए शब्दकोष में 'पत्नी' को 'परिग्रह' भी कहा गया है। इस दृष्टि से पार्श्वनाथ तीर्थंकर ने साधु के लिए ब्रह्मचर्य को अलग से महाव्रत न मानकर अपरिग्रहमहाव्रत में ही समाविष्ट कर दिया था।
पंचसिक्खिओ : पंचमहाव्रत स्थापना का रहस्य- (१) पंचशिक्षित, (महावीर ने ) - -पंचमहाव्रतों द्वारा शिक्षित - प्रकाशित किया, अथवा (२) पंचशिक्षिक— पांच शिक्षाओं में होने वाला — पंचशिक्षिक अर्थात् पंचमहाव्रतात्मक। पांच महाव्रत ये हैं- (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य, (४) ब्रह्मचर्य और (५) अपरिग्रह। मालूम होता है, पार्श्वनाथ भगवान् के मोक्षगमन के पश्चात् युगपरिवर्तन के साथ कुछ कुतर्क उठे होंगे कि स्त्री को विधिवत् परिगृहीत किये बिना भी उसकी प्रार्थना पर उसकी रजामंदी से यदि
१.
(क) उत्तरा (अनुवाद, विवेचन, मुनि नथमलजी) भा. १, पृ. ३०४
(ख) 'आलीनौ मन-वचन-कायगुप्तिष्वाश्रितौ' । - बृहद्वृत्ति, पत्र ४९९
२.
३.
भिक्षाचर्यादौ गमनामगनं कुर्वतां शिष्यसंघानां परस्परावलोकनात् विचारः समुत्पन्नः।'
- उत्तरा प्रियदर्शिनी भा. ३, पृ. ८९४
आचारो वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलाप:, स एव धर्मः, तस्य व्यवस्थापनम्-आचारधर्मप्रणिधिः ।
- बृहद्वृत्ति, पत्र ४९९