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उत्तराध्ययनसूत्र
प्रवचनमाता इन्द्रियविषयों को छोड़कर एकमात्र गमनक्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख मानकर चले। भाषासमिति की शुद्धि के लिए क्रोधादि आठ स्थानों को छोड़कर हित, मित, सत्य, निरवद्य भाषा बोले, एषणासमिति के विशोधन के लिए गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा के दोषों का वर्जन करके आहार, उपधि और शय्या का उपयोग करे। आदाननिक्षेपसमिति के शोधन के लिए समस्त उपकरणों को नेत्रों से प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन करके ले और रखे। परिष्ठापनासमिति के शोधन के लिए अनापात-असंलोक आदि १० विशेषताओं से युक्त स्थण्डिलभूमि देखकर मलमूत्रादि का विसर्जन करे। मन-वचन-कायगुप्ति के परिशोधन के लिए संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त
होते हुए मन, वचन और काय को रोके। * यह अध्ययन साध्वाचार का अनिवार्य अंग है। प्रवचनामाताओं का पालन साधु के लिए नितान्त
आवश्यक है। पांच समितियों एवं तीन गुप्तियों के पालन से पंचमहाव्रत सुरक्षित रह सकते हैं और साधक अपने परमलक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।२
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१. उत्तरा. अ. २४, गा. ४ से २४ तक २. उत्तरा. अ. २४, गा. २७