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उत्तराध्ययनसूत्र
[३८] ( गणधर गौतम ) - हे मुनिवर ! एक न जीता हुआ अपना आत्मा (मन या जीव) ही शत्रु है । कषाय (चार) और इन्द्रियाँ (पाँच, नहीं जीतने पर) शत्रु हैं। उन्हें (दसों को ) जीत कर मैं (शास्त्रोक्त) नीति के अनुसार (इन शत्रुओं के बीच में रहता हुआ भी) (अप्रतिबद्ध) विहार करता हूँ ।
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विवेचन — हजारों शत्रु और उनके बीच में खड़े गौतमस्वामी—- जब तक केवलज्ञान नहीं उत्पन्न हो जाता, तब तक आन्तरिक शत्रु परास्त नहीं होते। इसीलिए केशी श्रमण गौतमस्वामी से पूछ रहे हैं कि ऐसी स्थिति में आप पर चारों ओर से हजारों शत्रु हमला करने के लिए दौड़ रहे हैं, फिर भी आपके चेहरे पर उन पर विषय के प्रशमादि चिह्न दिखाई दे रहे हैं, इससे मालूम होता है, आपने उन शत्रुओं पर विजय पा ली है। अतः प्रश्न है कि आपने उन शत्रुओं को कैसे जीता । १
दसों को जीतने से सर्वशत्रुओं पर विजय कैसे ? – जैसा कि गौतमस्वामी ने कहा था—एक (मन या जीव) को जीत लेने से उसके अधीन जो क्रोधादि ४ कषाय हैं, वे जीते गए और मन सहित पांचों को जीतने पर जो पांच इन्द्रियाँ मन के अधीन हैं, वे जीत ली जाती हैं। ये सभी मिल कर दस होते हैं, इन दस को जीत लेने पर इनका समस्त परिवार, जो हजारों की संख्या में है, जीत लिया जाता है। यही गौतम के कथन का आशय है । २
हजारों शत्रु : कौन ? – (१) मूल में क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय हैं। सामान्य जीव और चौबीस दण्डकवर्ती जीव, इन २५ के साथ क्रोधादि प्रत्येक को गुणा करने पर प्रत्येक कषाय के १००, और चारों कषाओं के प्रत्येक चार-चार भेद मिलकर ४०० भेद होते हैं । क्रोधादि प्रत्येक कषाय अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के भेद से ४-४ प्रकार के हैं। यों १६ कषायों को २५ से गुणा करने पर ४०० भेद होते हैं । (२) अन्य प्रकार के भी क्रोधादि प्रत्येक कषाय के चार-चार भेद होते हैं(१) आभोगनिर्वर्तित, (२) अनाभोगनिर्वर्तित, (३) उपशान्त (अनुदयावस्थ) और (४) अनुपशान्त (उदयावलिकाप्रविष्ट), इन ४ x ४ = १६ का पूर्वोक्त २५ के साथ गुणा करने से ४०० भेद क्रोधादि चारों कषायों के होते हैं। (३) तीसरे प्रकार से भी क्रोधादि कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं। यथा— (१) आत्मप्रतिष्ठित (स्वनिमित्तक), (२) परप्रतिष्ठित (परनिमित्तक), (३) तदुभयप्रतिष्ठित (स्वपरनिमित्तक) और (४) अप्रतिष्ठित (निराश्रित ), इस प्रकार इन ४ x ४ = १६ कषायों का पूर्वोक्त २५ के साथ गुणा करने पर ४०० भेद हो जाते हैं। (४) चौथा प्रकार — क्रोधादि प्रत्येक कषाय का क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, इन चारों के साथ गुणा करने से ४ x ४ = १६ भेद चारों कषायों के हुए। इन १६ का पूर्वोक्त २५ के साथ गुणा करने पर कुल ४०० भेद होते हैं। (५) कारण का कार्य में उपचार करने से कषायों के प्रत्येक के ६-६ भेद होते हैं । यथा – (१) चय, (२) उपचय, (३) बन्धन, (४) वेदना, (५) उदीरणा और (६) निर्जरा। 1 इन ६ भेदों को भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल (तीन काल ) के साथ गुणा करने पर १८ भेद हो जाते हैं । इन १८ ही भेदों को एक जीव तथा अनेक जीवों की अपेक्षा, दो के साथ गुणा करने से ३६ भेद होते हैं । इनको क्रोधादि चारों कषायों के साथ गुणा करने पर १४४ भेद होते हैं । इनको पूर्वोक्त २५ से गुणित करने पर कुल ३६०० भेद कषायों के हुए। इन ३६०० के पहले के १६०० भेदों को और मिलाने पर चारों कषायों कुल ५२०० भेद हो जाते हैं।
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उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९१९ २. वही, पृ. ९२०