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उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन–मेहावि—'मेधावी' शब्द साधक का विशेषण है। (२) श्रेणिक राजा के लिए 'मेधाविन् ! (हे बुद्धिमान् राजन् !), शब्द से सम्बोधन है। संजम–संयम का अर्थ यहाँ यथाख्यातचारित्रात्मक संयम है।
चरित्तमायारगुणन्निए-चारित्र का आचाररूप यानी आसेवनरूप गुण, अथवा गुण का अर्थ यहाँ प्रसंगवश ज्ञान है। चारित्राचार एवं (ज्ञानादि) गुणों से जो अन्वित हो वह 'चारित्राचारगुणान्वित' है।
महानियसंठिजं - महानिर्ग्रन्थीयम् - महानिर्ग्रन्थों के लिए हितरूप महानिर्ग्रन्थीय। २ संतुष्ट एवं प्रभावित श्रेणिक राजा द्वारा महिमागानादि
५४. तुट्ठो य सेणिओ राया इणमुदाहु कयंजली।
अणाहत्तं जहाभूयं सुठु मे उवदंसियं॥ [५४] (मुनि से सनाथ-अनाथ का रहस्य जानकर) राजा श्रेणिक सन्तुष्ट हुआ। हाथ जोड़कर उसने इस प्रकार कहा-भगवन् ! अनाथता का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे सम्यक् प्रकार से समझाया।
५५. तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्मं लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी।
__ तुब्भे सणाहा य सबन्धवा य जं भे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं॥ [५५] (राजा श्रेणिक)-हे महर्षि! आपका मनुष्यजन्म सुलब्ध (सफल) है, आपकी उपलब्धियाँ सफल हैं। आप सच्चे सनाथ और सबान्धव हैं, क्योंकि आप जिनेश्वरों के मार्ग में स्थित हैं।
५६. तं सि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाण संजया!
खामेमि ते महाभाग! इच्छामि अणुसासिउं॥ [५६] हे संयत! आप अनाथों के नाथ हैं, आप सभी जीवों के नाथ हैं। हे महाभाग। मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ। मैं आप से अनुशासित होने की (शिक्षा प्राप्ति की) इच्छा रखता हूँ।
५७. पुच्छिऊण मए तुब्भं झाणविग्यो उ जो कओ।
__ निमन्तिओ य भोगेहिं तं सव्वं मरिसेहि) मे॥ _ [५७] मैंने आप से प्रश्न पूछ कर जो (आपके) ध्यान में विघ्न डाला और भोगों के लिए आपको आमंत्रित किया, उस सबके लिए मुझे क्षमा करें (सहन करें)।
५८. एवं थुणित्ताण स रायसीहो अणगारसींह परमाइ भत्तिए।
सओरोहो य सपरियणो य धम्माणुरत्तो विमलेण चेयसा॥ [५८] इस प्रकार वह राज-सिंह (श्रेणिक राजा) परमभक्ति के साथ अनगार-सिंह की स्तुति करके अपने अन्तःपुर (रानियों ) तथा परिजनों सहित निर्मल चित्त होकर धर्म में अनुरक्त हो गया। १. (क) उत्तरा. (अनुवाद-विवेचन मुनि नथमल जी ) भा. १, पृ. २७०
(ख) बृहद्वात्त, पत्र ४८० २. महानिर्ग्रन्थेभ्यो हितम्-महानिर्ग्रन्थीयम्। - वही, पत्र ४८०