________________
वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय
३२९
मृत्यु के समय अत्यन्त मंदधर्मी मानव को भी धर्मविषयक रुचि उत्पन्न होती है, किन्तु उस समय सिवाय पश्चाताप के वह कुछ कर नहीं सकता। इस वाक्य में यह उपदेश गर्भित है कि पहले से ही मूढता छोड़कर दुराचार प्रवृत्ति छोड़ देनी चाहिए।
दुहओवि सेझिज्झइ—जिस साधु के लिए इहलोक और परलोक कुछ भी नहीं है, वह शरीरक्लेश के कारणभूत केशलोच आदि करके केवल कष्ट उठाता है। इसलिए वह इहलोक भी सार्थक नहीं करता और न परलोक ही सार्थक कर पाता है। क्योंकि यह जीवन साधुधर्म के वास्तविक आचरण से दूर रहा, इसलिए परलोक में कुगति में जाने के कारण उसे शारीरिक एवं मानसिक दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिए वह उभयलोकभ्रष्ट होकर इहलौकिक एवं पारलौकिक सम्पत्तिशाली जनों को देखकर मुझ पापभाजन (दुर्भाग्यग्रस्त)को धिक्कार है जो उभयलोकभ्रष्ट है, इस चिन्ता से क्षीण होता जाता है।
कुररीव निरट्ठसोया-जैसे मांसलोलुप गीध पक्षिणी माँस का टुकड़ा मुंह में लेकर चलती है, तब दूसरे पक्षी उस पर झपटते हैं, इस विपत्ति का प्रतीकार करने में असमर्थ वह पक्षिणी पश्चाताप रूप शोक करती है, वैसे ही भोगों के आस्वाद में गृद्ध साधु इहलौकिक पारलौकिक अनर्थ प्राप्त होने पर न तो स्वयं की रक्षा कर सकता है, न दूसरे की। इसलिए वह अनाथ बनकर व्यर्थ शोक करता है। महानिर्ग्रन्थपथ पर चलने का निर्देश और उसका महाफल
५१. सोच्चाण मेहावि सुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणोववेयं ।
मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं महानियंठाण वए पहेणं॥ __[५१] (मुनि)-मेधावी (बुद्धिमान्) साधक इस (पूर्वोक्त) सुभाषित को एवं ज्ञानगुण से युक्त अनुशासन (शिक्षा) को श्रवण कर कुशील लोगों के सर्व मार्गों को त्याग कर महानिर्ग्रन्थों के पथ पर चले।
५२. चरित्तमायारगुणनिए तओ अणत्तरं संजम पालियाणं।
निरासवे संखवियाण कम्मं उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं॥ [५२] तदनन्तर चारित्राचार और ज्ञान, शील आदि गुणों से युक्त निर्ग्रन्थ अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) सुसंयम का पालन कर, निराश्रव (रागद्वेषादि बन्धहेतुओं से मुक्त) होकर कर्मों का क्षय कर विपुल, उत्तम एवं ध्रुव स्थान-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।
५३. एवुग्गदन्ते वि महातवोधणे महामुणी महापइन्ने महायसे।
महानियण्ठिजमिणं महासुयं से काहए महया वित्थरेणं॥ [५३] इस प्रकार (कर्मशत्रुओं के प्रति) उग्र एवं दान्त (इन्द्रिय एवं मन को वश में करने वाले), महातपोधन, महाप्रतिज्ञ, महायशस्वी महामुनि ने इस महानिर्ग्रन्थीय महाश्रुत को (राजा श्रेणिक के अनुरोध से) बड़े विस्तार से कहा। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७९
. ..यथा चैषा आमिषगद्धा पक्ष्यन्तरेभ्यो विपत्प्राप्तौ शोचते, न च ततः कश्चित् विपत्प्रतीकार इति, एवमसावपि भोगरसगद्धः ऐहिकामुष्मिकाऽनर्थप्रान्तौ, ततोऽस्य स्वपरपरित्राणऽसमर्थत्वेनाऽनाथत्वमिति भावः।" - वही, पत्र ४८०