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उत्तराध्ययनसूत्र
बलाबलं जाणिय अप्पणो य—अपने बलाबल अर्थात् सहिष्णुता-असहिष्णुता को जान कर, जिससे अपने संयमयोग की हानि न हो।
वयजोग सुच्चा-असभ्य अथवा दु.खोत्पादक वचनप्रयोग सुन कर।
न सव्व सव्वत्थऽभिरोयएजा : दो व्याख्या-बृहद्वृत्ति के अनुसार-(१) जो कुछ भी देखे, उसकी अभिलाषा न करे, अथवा (२) एक अवसर पर पुष्टालम्बनतः (विशेष कारणवश अपवादरूप में) जिसका सेवन किया, उसका सर्वत्र सेवन करने की इच्छा न करे।
न याऽविपूयं गरहं च संजए : दो व्याख्या—(१) पूजा और गर्दा में भी अभिरुचि न रखे। यहाँ पूजा का अर्थ अपनी पूजा-प्रतिष्ठा, सत्कार आदि है तथा गर्दा का अर्थ—परनिन्दा से है। कई लोग गर्दा का अर्थ-आत्मगर्हा या हीनभावना करके उससे कर्मक्षय मानते हैं, उनके मत का खण्डन करने हेतु यहाँ गर्दा परनिन्दा रूप अर्थ में ही लेना चाहिए। (२) १५वीं गाथा की तरह २०वीं गाथा में भी यही पंक्ति अंकित है, वहाँ दूसरी तरह से बृहद्वृत्तिकार ने अर्थ किया है-अपनी पूजा के प्रति उन्नत और अपनी गर्दी के प्रति अवनत न होने वाला मुनि पूजा और गर्दा में लिप्त (आसक्त) न हो। बृहवृत्ति में इन दोनों पंक्तियों के अभिप्राय में अन्तर बताया गया है कि पहले अभिरुचि का निषेध बताया गया था, यहाँ संग (आसक्ति) का। पहीणसंथवे—संस्तव अर्थात् गृहस्थों के साथ अति-परिचय, दो प्रकार का है—(१) पूर्वपश्चात्संस्तवरूप अथवा (२) वचन-संवासरूप। जो संस्तव से रहित है, वह प्रहीणसंस्तव है।५ पहाणवं : प्रधानवान् – प्रधान का अर्थ यहाँ संयम है, क्योंकि वह मुक्ति का हेतु है। इसलिए प्रधानवान् का अर्थ संयमीसंयमशील होता है।
परमट्ठपएहि परमार्थपदै : - परमार्थ का अर्थ प्रधान पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष है, वह जिन पदों - साधनों या मार्गों से प्राप्त किया जाता है, वे परमार्थपद हैं—सम्यग्दर्शनादि । उनमें जो स्थित है।
छिन्नसोए—(१) छिन्नशोक-शोकरहित, (२) छिन्नस्रोत–मिथ्यादर्शनादि कर्मबन्धन-स्रोत जिसके छिन्न हो गए है, वह। निरोवलेवाइं—'निरुपलेपानि' विशेषण 'लयनानि' शब्द का है। बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो दृष्टियों से अर्थ किए हैं—द्रव्यतः लेपादि कर्म से रहित और भावतः आसक्तिरूप उपलेप से रहित है। सन्नाणनाणोवगए—सद्ज्ञानज्ञानोपगत : दो अर्थ-(१) सद्ज्ञान यहाँ श्रुतज्ञान अर्थ में है। अर्थ हुआ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ २. वाग्योगम्-अर्थात्-दुःखोत्पादकम्, सोच्चा-श्रुत्वा। - वही, पत्र ४८६ ३. न सर्वं वस्तु सर्वत्र स्थानेऽभ्यरोचयत, न यथादृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति भावः। यदि वा यदेकत्र पुष्टा-लम्बनतः सेवितं
न तत् सर्वम्-अभिमताहारादि सर्वत्राभिलषितवान्।
'........ पूर्वत्राभिरुचिनिषेध उक्तः, इह तु संगस्येति पूर्वस्माद् विशेषः।' -बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६-४८७ ५. ......... संस्तवश्च पूर्वपश्चातत्संस्तवरूपो वचनसंवासरूपो वा गृहिभिः सह। - बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७ ६. ........ प्रधानः स च संयमो मुक्तिहेतुत्वात्, स यस्यास्त्यसौ प्रधानवान्। -बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७
परमः प्रधानोऽर्थः पुरुषार्थो—परमार्थो-मोक्षः, स पद्यते-गम्यते यैस्तानि परमार्थपदानि-सम्यग्दर्शनादीनि, तेषु तिष्ठति
-अविराधकतयाऽऽस्ते। - बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७ ८. "छिन्नसोय त्ति छिन्नशोकः, छिन्नानि वा स्रोतांसीव स्रोतांसि -मिथ्यादर्शनादीनि येनाऽसौ। छिन्नस्रोताः।"
- बृहवृत्ति, पत्र ४८७ ९. निरोवलेवाइं ति–निरुपलेपानि-अभिष्वंगरूपोपलेपवर्जितानि भावतो, द्रव्यतस्तु तदर्थं नोपलिप्तानि।- वही, पत्र ४८७
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