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वीसवाँ अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय
३१७ बाह्य दृष्टि से संयमी हो सकते हैं, अत: 'सुसमाहित' विशेषण और जोड़ा गया, अर्थात्-वह संयत होने के साथ-साथ सम्यक मन:समाधान सम्पन्न थे।
अच्चंतपरमो अउलो रूवविम्हओ—'राजा को उनके रूप के प्रति अत्यधिक अतुल–असाधारण विस्मय हुआ।'
वर्ण और रूप में अन्तर–वर्ण का अर्थ है सुस्निग्धता या गोरा, गेहुंआ आदि रंग और रूप कहते हैं -आकार, (आकृति) एवं डीलडौल को। वर्ण और रूप से व्यक्तित्व' जाना जाता है। असंगयाअसंगता का अर्थ-नि:स्पृहता या अनासक्ति है।
चरणवन्दन के बाद प्रदक्षिणा क्यों? -प्राचीनकाल में पूज्य पुरुषों के दर्शन होते ही चरणों में वन्दना और फिर साथ-साथ ही उनकी प्रदक्षिणा की जाती थी। इस विशेष परिपाटी को बताने के लिए यहाँ दर्शन, वन्दन और प्रदक्षिणा का क्रम अंकित है।
राजा की विस्मययुक्त जिज्ञासा का कारण श्रेणिक राजा को उक्त मुनि को देखकर विस्मय तो इसलिए हुआ कि एक तो वे मुनि तरुण थे, तरुणावस्था भोगकाल के रूप में प्रसिद्ध है, किन्तु उस अवस्था में कदाचित् कोई रोगादि हो या संयम के प्रति अनुद्यत हो तो कोई आश्चर्य नहीं होता, किन्तु यह मुनि तरुण थे, स्वस्थ थे, समाधि सम्पन्न थे और श्रमणधर्मपालन में समुद्यत थे, यही विस्मय राजा की जिज्ञासा का कारण बना। अर्थात् –भोगयोग्य काल (तारुण्य) में जो आप प्रव्रजित हो गए हैं, मैं इसका कारण जानना चाहता हूँ। मुनि और राजा के सनाथ-अनाथ सम्बन्धी उत्तर-प्रत्युत्तर
९. अणाहो मि महाराय! नाहो मज्झ न विजई।
अणुकम्पगं सुहिं वावि कंचि नाभिसमेमऽहं ॥ [९] (मुनि)—महाराज! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है। मुझ पर अनुकम्पा करने वाला या सुहृद् (सहृदय) मुझे नहीं मिला।
१०. तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो।
__एवं ते इड्डिमन्तस्स कहं नाहो न विजई? [१०] (राजा)—यह सुनकर मगधनरेश राजा श्रेणिक जोर से हंसता हुआ बोला -इस प्रकार ऋद्धिसम्पन्न-ऋद्धिमान् (वैभवशाली) आपका कोई नाथ कैसे नहीं है? १. "साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते, तद्व्यवच्छेदार्थं संयतमित्युक्तं, सोऽपि च बहि:संयमवान्निह्नवादिरपि स्यादिति सुष्ठ समाहितो
-मन:समाधानवान् सुसमाहितस्तमित्युक्तम्।" -बृहद्वृत्ति, पत्र ४७२ २. 'वर्ण: सुस्निग्धो गौरतादिः, रूपम् -आकारः। -बृहवृत्ति, पत्र ४७३ ३. (क) वही, पत्र ४७३ (ख) उत्तरा. अनुवाद विवेचन (मुनि नथमल), भा. १, पृ. २६२ ४. बृहवृत्ति, पत्र ४७३ ५. वही, पत्र ४७३