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'ग्यारहवाँ अध्ययन
बहुश्रुतपूजा
अध्ययन-सार * प्रस्तुत ग्यारहवें अध्ययन का नाम बहुश्रुतपूजा है। इसमें बहुश्रुत की भावपूजा-महिमा एवं
जीवन की श्रेष्ठता का प्रतिपादन है। * प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत का अर्थ – चतुर्दशपूर्वधर, सर्वाक्षरसन्निपाती निपुण साधक है। यहाँ
समग्र निरूपण ऐसे बहुश्रुत की भावपूजा से सम्बन्धित है, क्योंकि तीर्थंकर केवली, सिद्ध, आचार्य एवं समस्त साधुओं की जो पूजा (गुणगान-बहुमानादिरूप) की जाती है, वह भाव से (भावनिक्षेप
की अपेक्षा से ) होती है । उपलक्षण से शेष सभी बहुश्रुत मुनियों की भावपूजा भी अभिप्रेत है। * विभिन्न आगमों में बहुश्रुत के विभिन्न अर्थ दृष्टिगोचर होते हैं; यथा – दशवैकालिकसूत्र में 'आगमवृद्ध', सूत्रकृतांग में 'शास्त्रार्थपारंगत', बृहत्कल्प में 'बहुत-से सूत्र अर्थ और तदुभय के धारक', व्यवहारसूत्र में - जिसको अंगबाह्य, अंगप्रविष्ट आदि बहुत प्रकार से श्रुत-आगमों का ज्ञान हो तथा जो बहुत से साधकों की चारित्रशुद्धि करने वाला एवं युगप्रधान हो । स्थानांगसूत्र के अनुसार सूत्र और अर्थरूप से प्रचुरश्रुत (आगमों) पर जिसका अधिकार हो, अथवा जो जघन्यतः नौवें पूर्व की तृतीय वस्तु का और उत्कृष्टतः सम्पूर्ण दश पूर्वो का ज्ञाता हो; वह बहुश्रुत है। इसका पर्यायवाची बहुसूत्र शब्द भी है, जिसका अर्थ किया गया है-जो आचारांग आदि बहुत-से
कालोचित सूत्रों का ज्ञाता हो। * बहुश्रुत की तीन कोटियाँ निशीथचूर्णि, बृहत्कल्प आदि में प्रतिपादित हैं-(१) जघन्य बहुश्रुत
जो आचारप्रकल्प एवं निशीथ का ज्ञाता हो, (२) मध्यम बहुश्रुत-जो बृहत्कल्प एवं व्यवहारसूत्र
का ज्ञाता हो और (३) उत्कृष्ट बहुश्रुत-नौवें, दसवें पूर्व तक का धारक हो। १. जे किर चउदसपुव्वी सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा।
जा तेसिं पूया खलु सा भावे ताइ अहिगारो॥ -उत्तरा० नियुक्ति, गा० ३१७ २. (क) दशवै०, अ०८ (ख) सूत्रकृ० श्रु०१, अ० २, उ०१ (ग) बृहत्कल्प (घ) बहुस्सुए जुगप्पहाणे अभिंतरबाहिरं सुर्य बहुहा।
होति चसद्दग्गहणा चारित्तं पि सुबहुयं पि॥ -व्यवहारसूत्र, गा० २५१ (ज) बहुपुरं त्रुतमागमः सूत्रतायतश्य यस्य उत्कृष्टत: सम्पूर्णदशपूर्वधर, जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्व
तृतीयवस्तुवेदिनि।-स्थानांग, स्था० ८ (च) व्यवहारसूत्र ३ उ०, दशाश्रुत० ३. तिविहो बहुस्सुओ खलु, जहन्नओ मज्झिमो य उक्कोसो।
आयारपकप्पे, कप्पे, णवम-दसमे य उक्कोसो॥- बृहत्कल्प, उ०१ प्रकरण १, गा० ४०४, नि०चू०