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उत्तराध्ययनसूत्र
[२६] (क्रियावादी आदि एकान्तवादियों का ) यह सब कथन मायापूर्वक है, (अत:) वह मिथ्यावचन है, निरर्थक है। मैं उन मायापूर्ण एकान्तवचनों से बच कर रहता और चलता हूँ ।
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२७. सव्वे ते विड्या मज्झं मिच्छादिट्ठी अणारिया । विजमाणे परे लोए सम्मं जाणामि अप्पगं ॥
[२७] वे सब मेरे जाने हुए हैं, जो मिथ्यादृष्टि और अनार्य हैं। मैं परलोक के अस्तित्व से अपने (आत्मा) को भलीभांति जानता हूँ ।
विवचेन—चार वादों का निरूपण - प्रस्तुत (सं. २३) गाथा में भगवान् महावीर के समकालीन एकान्तवादियों के द्वारा अभिमत चार वादों का उल्लेख है । सूत्रकतांगसूत्र में इन चारों के ३६३ भेद बताए गए हैं । यथा— क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, वैनयिकों के ३२ और अज्ञानवादियों के ६७ भेद हैं।
(१) क्रियावाद - क्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को मानते हुए भी, वह व्यापक है अथवा अव्यापक, कर्त्ता है या अकर्त्ता, मूर्त्त है या अमूर्त; इस विषय में विप्रसन्न हैं, अर्थात् — संशयग्रस्त हैं।
(२) अक्रियावाद — अक्रियावादी वे हैं, जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते। वे आत्मा और शरीर को एक मानते हैं। अस्तित्व मानने पर शरीर के साथ एकत्व है या अन्यत्व है, इस विषय में वे अवक्तव्य रहना चाहते हैं। एकत्व मानने पर शरीर की अविनष्ट स्थिति में कभी मरण का प्रसंग नहीं आएगा, अन्यत्व मानने पर शरीर को छेद आदि करने पर वेदना के अभाव का प्रसंग आ जाएगा, इसलिए अवक्तव्य है। कई अक्रियावादी उत्पत्ति के अनन्तर ही आत्मा का प्रलय मानते हैं।
( ३ ) विनयवाद - विनयवादी विनय से ही मुक्ति मानते हैं। विनयवादियों का मानना है कि सुर, असुर, नृप, तपस्वी, हाथी, घोड़ा, मृग, गाय, भैंस, कुत्ता, सियार, जलचर, कबूतर, चिड़ियां आदि को नमस्कार करने से क्लेशनाश होता है, विनय से श्रेय होता है, अन्यथा नहीं। किन्तु ऐसे विनय से न तो कोई पारलौकिक हेतु सिद्ध होता है, न इहलौकिक । लौकिक लोकोत्तर जगत् में गुणों से अधिक ही विनय के योग्य पात्र माना जाता है। गुण ज्ञान, ध्यान के अनुष्ठान रूप होते हैं। देव-दानव आदि में अज्ञान, आश्रव से अविरति आदि दोष होने से वे गुणाधिक कैसे माने जा सकते हैं?
(४) अज्ञानवाद - अज्ञानवादी मानते हैं कि अज्ञान ही श्रेयस्कर है। ज्ञान होने से कई जगत् को ब्रह्मादिविवर्त्तरूप, कई प्रकृति-पुरुषात्मक, दूसरे द्रव्यादि षड् भेद रूप, कई चार आर्यसत्यरूप, कई विज्ञानमय, कई शून्य रूप, यों विभिन्न मतपन्थ हैं, फिर आत्मा को कोई नित्य कहता है, कोई अनित्य, यों अनेक रूप से बताते हैं, अतः इनके जानने से क्या प्रयोजन है? मोक्ष के प्रति ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है। केवल कष्ट रूप तपश्चरण करना पड़ता है। घोर तप, व्रत आदि से ही मोक्ष प्राप्त होता है। अतः ज्ञान अकिञ्चित्कर है।
जैनदर्शन क्रियावादी है, पर एकान्तवादी नहीं है, इसलिए सम्यक्वाद है । क्षत्रिय महर्षि के कहने का आशय यह है कि मैं क्रियावादी हूँ, परन्तु आत्मा को कथञ्चित् (द्रव्यदृष्टि से) नित्य और कथञ्चित् (पर्यायदृष्टि से) अनित्य मानता हूँ । इसीलिए कहा है—'मैं परलोकगत अपने आत्मा को भलीभांति जानता हूँ । १
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४३ से ४४५ तक का सारांश