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अठारहवाँ अध्ययन : संजयीय
२७५ सर्वार्थसिद्ध से च्यव कर मेघरथ राजर्षि का जीव हस्तिनापुर नगर के विश्वसेन राजा की रानी अचिरादेवी की कुक्षि में अवतरित हुआ। ठीक समय पर मृगलांछन वाले पुत्र को जन्म दिया। यह पुत्र गर्भ में आया तब फैले हए महामारी आदि उपद्रव शान्त हो गए, यह सोचकर राजा ने पत्र का जन्म-महोत्सव करके उसका 'शान्तिनाथ' नाम रखा। वयस्क होने पर यशोमती आदि राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। जब ये २५ हजार वर्ष के हुए तब राजा विश्वसेन ने इन्हें राज्य सौंपकर आत्मकल्याण सिद्ध किया। शान्तिनाथ राजा को राज्य करते हुए २५ हजार वर्ष हुए तब एक बार उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। भारतवर्ष के छह खण्डों पर विजय प्राप्त की। फिर देवों और सर्व राजाओं ने मिलकर १२ वर्ष तक चक्रवर्तीपद का अभिषेक किया। जब २५ हजार वर्ष चक्रवर्ती पद भोगते हुए हो गये तब लोकान्तिक देव आकर प्रभु से प्रार्थना करने लगे-स्वामिन् ! तीर्थप्रवर्तन कीजिए। अतः प्रभु ने वार्षिक दान दिया। अपना राज्य अपने पुत्र चक्रायुध को सौंप कर सहस्राम्रवन में हजार राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की। एक वर्ष पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बाद में चक्रायुध राजा सहित ३५ अन्य राजाओं ने दीक्षा ली। ये ३६ मुनि शान्तिनाथ भगवान् के गणधर के रूप में हुए। तत्पश्चात् चिरकाल तक भूमण्डल में विचरण किया। अन्त में दीक्षादिवस से २५ हजार वर्ष व्यतीत होने पर प्रभु ने सम्मेतशिखर पर पदार्पण करके नौ सौ साधुओं सहित अनशन ग्रहण किया। एक मास बाद आयुष्य पूर्ण होने पर सिद्ध पद प्राप्त किया। कुन्थुनाथ की अनुत्तरगति-प्राप्ति
३९. इक्खागरायवसभो कुन्थु नाम नराहिवो ।
विक्खायकित्ती धिइमं पत्तो गइमणुत्तरं ॥ [३९] इक्ष्वाकुकुल के राजाओं में श्रेष्ठ (वृषभ) नरेश्वर, विख्यातकीर्ति तथा धृतिमान् कुन्थुनाथ ने अनुत्तरगति प्राप्त की।
विवेचन–कुन्थुनाथ भगवान् की संक्षिप्त जीवनगाथा-पूर्वमहाविदेह क्षेत्र में आवर्तविजय में खड्गी नामक नगरी का राजा 'सिंहावह' था। एक बार उसने संसार से विरक्त होकर श्रीसंवराचार्य से दीक्षा ग्रहण की, तत्पश्चात् २० स्थानकों के सेवन से तीर्थंकरनामकर्म का उपार्जन किया। चिरकाल तक चारित्रपालन करके अन्त में अनशन ग्रहण कर आयुष्य का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव हुआ।
वहाँ से च्यवन कर हस्तिनापुर नगर के राजा सूर की रांनी श्रीदेवी की कुक्षि में अवतरित हुए। प्रभु गर्भ में आए थे, तब से ही सभी शत्रु राजा कुन्थुसम अल्पसत्त्व वाले हो गए तथा माता ने भी स्वप्न में कुत्स्थ-अर्थात-पृथ्वीगत रत्नों के स्तूप (संचय) को देखा था। इस कारण महोत्सवपूर्वक उसका नाम 'कुन्थु' रखा गया।
युवावस्था में आने पर उनका अनेक कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। वे राज्य कर रहे थे, तभी उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। अतः भरतक्षेत्र के ६ ही खण्ड उन्होंने साधे। चिरकाल तक राज्य का पालन किया। एक बार लोकान्तिक देवों द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन के लिए अनुरोध किये जाने पर कुन्थु चक्रवर्ती ने अपने पुत्र को राज्य सौंप कर वार्षिक दान दिया और हजार राजाओं के साथ चारित्र ग्रहण किया। तत्पश्चात् अप्रमत्त विचरण करते हुए १६ वर्ष बाद उन्हें उसी सहस्राम्रवन में ४ घातिकर्म का क्षय १. उत्तरा. (गुजराती, भावनगर से प्रकाशित) भा. २, पत्र ६४ .