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उत्तराध्ययनसूत्र होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तीर्थ-स्थापना की। अन्त में हजार मुनियों सहित सम्मेतशिखर पर एक मास के अनशन से मुक्ति प्राप्त की। अरनाथ की संक्षिप्त जीवनगाथा
४०. सागरन्तं जहित्ताणं भरहं नरवरीसरो।
अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ॥ _ [४०] समुद्रपर्यन्त भारतवर्ष का (राज्य) त्याग कर कर्मरजरहित अवस्था को प्राप्त करके नरेश्वरों में श्रेष्ठ 'अर' ने अनुत्तरगति प्राप्त की।
विवेचनअरनाथ को अनुत्तरगति-प्राप्ति -जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में वत्स नामक विजय के अन्तर्गत सुसीमा नगरी थी। वहाँ के राजा धनपति ने संसार से विरक्त हो कर समन्तभद्र मुनि से दीक्षा ग्रहण की। अरिहन्तसेवा आदि बीस स्थानकों की आराधना से उन्होंने तीर्थंकरनामकर्म का उपार्जन किया। चिरकाल तक तपश्चरण एवं महाव्रतों का पालन करके अन्त में अनशन करके आयुष्य पूर्ण होने पर नौवें ग्रैवेयक में श्रेष्ठ देव हुए।
___ वहाँ से च्यवन कर वे हस्तिनापुर के सुदर्शन राजा की रानी देवी की कुक्षि में अवतरित हुए। गर्भ का समय पूर्ण होने पर रानी ने कांचनवर्ण वाले पत्र को जन्म दिया। माता ने स्वप्न में रत्न का अर-चक्र का आरा—देखा था, तदनुसार पुत्र का नाम 'अर' रखा। अरनाथ ने यौवन में पदार्पण किया तो उनका विवाह अनेक राजकन्याओं के साथ किया गया। तत्पश्चात् इन्हें राज्य का भार सौंप कर सुदर्शन राजा ने रानी-सहित सिद्धाचार्य से दीक्षा ग्रहण की। राजा अरनाथ ने सम्पूर्ण भारत क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित करके चक्रवर्तीपद प्राप्त किया। लोकान्तिक देवों ने तीर्थप्रर्वतन के लिए प्रार्थना की तो अरनाथ ने वर्षीदान दिया। फिर अपने पुत्र को राज्य सौंप कर एक हजार राजाओं के साथ प्रव्रजित हुए। तीन वर्ष बाद उसी सहस्राम्रवन में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। तीर्थ रचना की।
अरनाथ भगवान् ने कुल ८४ हजार वर्ष की आयु पूर्ण करके अन्त में सम्मेतशिखर पर हजार साधुओं के साथ जाकर अनशन करके एक मास के पश्चात् आयुष्य पूर्ण होते ही सिद्धि प्राप्त की। महापद्म चक्रवर्ती द्वारा तपश्चरण
४१. चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ।
चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे॥ [४१] समग्र भारतवर्ष का (राज्य-) त्याग कर, उत्तम भोगों का परित्याग करके महापद्म चक्रवर्ती ने तपश्चरण किया।
विवेचन–महापद्मचक्री की जीवनगाथा—हस्तिनापुर में इक्ष्वाकुवंशी पद्मोत्तर नामक राजा था। उसकी ज्वाला नाम की रानी ने सिंह का स्वप्न देखा। उससे विष्णु नामक एक पुत्र हुआ, फिर जब १४ १. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर) भा. २. पत्र ६४-६५ २. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. ३, पृ. २४० से २४६ तक