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मुनि को देखकर मृगापुत्र को पूर्वजन्म का स्मरण
४. मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ । आलोएइ नगरस्स चउक्क-तिय-चच्चरे ॥
[४] एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जड़े हुए कुट्टिमतल (फर्श ) वाले प्रासाद के गवाक्ष (झरोखे) में स्थित होकर नगर के चौराहों (चौक), तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। अह तत्थ अइच्छन्तं पासई समणसंजयं । तव-नियम- संजमधरं सीलड्डुं गुणआगरं ॥
५.
नियम और संयम के धारक, शील से
[५] मृगापुत्र ने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, तथा (ज्ञानादि) गुणों के आकर एक श्रमण को देखा।
६.
तं देह मियापुत्ते दिट्ठीए अणिमिसाए उ । कहिं मन्नेरिसं रूवं दिट्ठपुव्वं मए पुरा ॥
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[६] मृगापुत्र उस मुनि को अनिमेष दृष्टि से देखने लगा और सोचने लगा. ऐसा रूप मैंने इससे पूर्व कहीं देखा है । '
७.
८.
उत्तराध्ययन सूत्र
साहुस्स दरिसणे तस्स अज्झवसामि सोहणे । मोहं गयस्स सन्तस्स जाईसरणं समुप्पन्नं ॥
सुसम्पन्न
'ऐसा लगता है कि
देवलोग - चुओ संतो माणुस्सं भवमागओ । सन्निनाणे समुप्पण्णे जाई सरइ पुराणयं ॥
[७-८] उस साधु के दर्शन तथा प्रशस्त अध्यवसाय के होने पर 'मैंने ऐसा कहीं देखा है' इस प्रकार के अतिचिन्तन (ऊहापोह ) वश मूर्च्छा-मोह को प्राप्त होने पर उसे (मृगापुत्र को ) जातिस्मरण - ज्ञान उत्पन्न हो गया ।
संज्ञि - ज्ञान अर्थात् समनस्क ज्ञान होते ही उसने पूर्वजन्म का स्मरण किया— 'मैं देवलोक से च्युत होकर मनुष्यभव में आया हूँ ।'
विवेचन – मणि और रत्न में अन्तर - बृहद्वृत्ति के अनुसार मणि कहते हैं - विशिष्ट माहात्म्य वाले चन्द्रकान्त आदि रत्नों को, तथा रत्न कहते हैं—गोमेयक आदि रत्नों को । १
आलोयण : आलोकन : विशिष्ट अर्थ - जहाँ बैठकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया जा सके, ऐसे प्रासाद को आलोकन कहते हैं अथवा सर्वोपरि ( सबसे ऊँचा ) चतुरिकारूप गवाक्ष । २
तवनियमसंजमधरं : विशिष्ट अर्थ - तप— बाह्य और आभ्यन्तर तप, नियम — द्रव्य आदि का
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१
२. आलोक्यते दिशोऽस्मिन् स्थितैरित्यालोकनम् तस्मिन् सर्वोपरिवर्त्तिचतुरिकागवाक्षे वा स्थितः उपविष्टः ।
— बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१