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उन्नीसवाँ अध्ययन : मृगापुत्रीय अभिग्रहात्मक व्रत अथवा ऐच्छिक व्रत या योगसम्मत शौच-संतोष आदि नियम एवं संयम–सत्रह प्रकार का संयम, इनके धारक।
सीलहूं : शीलाढ्य :- शील-अठारह हजार शिलांगों से आढ्य—परिपूर्ण या समृद्ध । २
अज्झवसाणंमि सोहणे : अर्थ—शोभन (पवित्र) अध्यवसान—अन्त:करणपरिणाम । अर्थात्-प्रधान क्षायोपशमिक भाववर्ती परिणाम।
पुराकडं : अर्थ —पूर्वजन्म में आचरित। ३ विरक्त मृगापुत्र द्वारा दीक्षा की अनुज्ञा-याचना
९. जाइसरणे समुप्पन्ने मियापुत्ते महिड्डिए।
सरई पोराणियं जाइं सामण्णं च पुराकयं॥ __[९] जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न होने पर महान् ऋद्धि के धारक मृगापुत्र को पूर्वभव का स्मरण हुआ और पूर्वाचरित श्रामण्य-साधुत्व की भी स्मृति हो गई।
१०. विसएहि अरज्जन्तो रज्जन्तो संजमम्मि य।
__अम्मापियरं उवागम्म इमं वयणमब्बवी॥ [१०] विषयों से विरक्त और संयम में अनुरक्त मृगापुत्र ने माता-पिता के पास आकर इस प्रकार कहा
११. सुयाणि मे पंच महव्वयाणि नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु।
निविण्णकामो मि महण्णवाओ अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो!॥ [११] मैंने (पूर्वभव में) पंचमहाव्रतों को सुना है तथा नरकों और तिर्यञ्चयोनियों में दुःख है। मैं संसाररूप महासागर से काम-विरक्त हो गया हूँ। माता! मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा; (अतः) मुझे अनुमति दें।'
विवेचन–विसएहि : अर्थ—मनोज्ञ शब्दादि विषयों में।
पूर्वजन्म का अनुभव-मृगापुत्र ने जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होने से माता-पिता को अपने पूर्वजन्म के अनुभव अथवा अनुभूत वृत्तान्त बताए, जिनमें मुख्य थे –(१) पूर्वजन्म में पंचमहाव्रतग्रहण, (२) नरकतिर्यञ्चगतियों में अनुभूत दु:ख। इन्हीं पूर्वजन्मकृत अनुभूतियों और स्मृतियों के आधार पर मृगापुत्र को संसार के कामभोगों से विरक्ति हुई। फलतः वह माता-पिता को दीक्षाग्रहण करने की अनुज्ञा प्रदान करने के लिए समझाता है। मृगापुत्र की वैराग्यमूलक उक्तियां
१२. अम्मताय! मए भोगा भुत्ता विसफलोवमा।
पच्छा कडुयविवागा अणुबन्ध-दुहावहा॥ १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : नियमश्च द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः।
(ख) शौचसंतोषतपस्स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।-योगदर्शन २/३२ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५२ : शीलं-अष्टादशशीलांगसहस्ररूपं, तेनाढ्यं-परिपूर्णम्। ३. वही, पत्र ५४२