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उत्तराध्ययनसूत्र
किसी से भी पराजित नहीं होता।
१९. जहा से तिक्खसिंगे जायखन्थे विरायई।
वसहे जूहाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए॥ [१९] जैसे तीखे सींगों एवं बलिष्ठ स्कन्धों वाला वृषभ यूथ के अधिपति के रूप में सुशोभित होता है, वैसे ही बहुश्रुत (स्वशास्त्र-परशास्त्र रूप तीक्ष्ण शृंगों से, गच्छ का गुरुतर-कार्यभार उठाने में समर्थ स्कन्ध से साधु आदि संघ के अधिपति आचार्य के रूप में) सुशोभित होता है।
२०. जहा से तिक्खदाढे उदग्गे दुष्पहंसए।
सीहे मियाण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए॥ [२०] जैसे तीक्ष्ण दाढों वाला, पूर्ण वयस्क एवं अपराजेय (दुष्प्रधर्ष) सिंह वन्यप्राणियों में श्रेष्ठ होता है, वैसे ही बहुश्रुत (नैगमादि नयरूप) दाढों से तथा प्रतिभादि गुणों के कारण दुर्जय एवं श्रेष्ठ होता
है।
२१. जहा से वासुदेवे संख-चक्क-गयाधरे।
अप्पडिहयबले जोहे एवं हवइ बहुस्सुए॥ [२१] जैसे शंख, चक्र और गदा को धारण करने वाला वासुदेव अप्रतिबाधित बल वाला योद्धा होता है, वैसे ही बहुश्रुत (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप त्रिविध आयुधों से युक्त एवं कर्मरिपुओं को पराजित करने में अपराजेय योद्धा की तरह समर्थ) होता है।
२२. जहा से चाउरन्ते चक्कवट्टी महिडिए।
चउद्दसरयणाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए॥ [२२] जैसे महान् ऋद्धिमान् चातुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का स्वामी होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी (आम!षधि आदि ऋद्धियों तथा पुलाकादि लब्धियों से युक्त, चारों दिशाओं में व्याप्त कीर्ति वाला चौदह पूर्यों का स्वामी) होता है।
२३. जहा से सहस्सक्खे वजपाणी पुरन्दरे।
सक्के देवाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए॥ [२३] जैसे सहस्राक्ष, वज्रपाणि एवं पुरन्दर शक्र देवों का अधिपति होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी (देवों के द्वारा पूज्य होने से) देवों का स्वामी होता है।
२४. जहा से तिमिरविद्धंसे उत्तिट्ठन्ते दिवायरे।
जलन्ते इव तेएण एवं हवइ बहुस्सुए॥ [२४] जैसे अन्धकार का विध्वंसक उदीयमान दिवाकर (सूर्य) तेज से जाज्वल्यमान होता है, वैसे ही बहुश्रुत (अज्ञानान्धकारनाशक होकर तप के तेज से जाज्वल्यमान) होता है।
२५. जहा से उडुवई चन्दे नक्खत्त-परिवारिए।
पडिपुण्णे पुण्णमासीए एवं हवइ बहुस्सुए॥